ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 14
मनुष्य में सबसे बड़ी कमी है कि वह
प्रत्येक कार्य को केवल अपने आपको ही कर्ता मानते हुए करना चाहता है | यह
कर्म-मार्ग फल देने वाला होता है, शांति नहीं क्योंकि प्रत्येक कर्म का फल सुख
अथवा दुःख के रूप में अवश्य ही मिलता है | जहाँ सुख है वहां दुःख भी होगा | शांति
में समता है, वहां किसी भी प्रकार के सुख अथवा दुःख का कोई स्थान नहीं है | इस कर्म-मार्ग
पर चलते हुए भी शांति को उपलब्ध हुआ जा सकता है और इस शांति को प्राप्त करने का
प्रथम उपाय है, कर्तापन का त्याग करते हुए निष्काम-भाव से कर्म करें, ये
निष्काम-कर्म ही अकर्म बनकर शांति प्रदान करते हैं | कर्म-मार्ग में शांति प्राप्त
करने का दूसरा उपाय है कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग कर देना | इन दोनों ही
प्रकार के उपायों में कर्म महत्वपूर्ण है | कर्म से शांति प्राप्त करने के इन
उपायों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है-ज्ञान अर्थात कर्मों से परम शांति को
उपलब्ध कराने में ज्ञान का योगदान महत्वपूर्ण है |
ज्ञान-मार्ग पर चलते हुए भी कर्म
करते हुए शांति प्राप्त की जा सकती है | ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए शांति प्राप्त
करने के भी दो प्रकार हैं | प्रथम तो ज्ञान के अनुसार कर्म करते रहना तथा दूसरा,
ज्ञान प्राप्त कर पूर्व में किये गए कर्मों को नष्ट कर देना | कर्म अगर ज्ञान को
ध्यान में रखते हुए किये जाये, तो वे फल नहीं देते हैं अर्थात कर्मफल नहीं देते, इसका
अर्थ है कि वे सभी कर्म अकर्म बन जाते हैं |
कर्म को अकर्म बना देना भी ज्ञान से
ही संभव है और कर्मों को नष्ट कर देना भी ज्ञान से ही संभव है | कर्म अकर्म तब बन
जाते हैं जब आप उन कर्मों को निष्काम भाव से करते हैं, संसार की सेवा के लिए करते
हैं, न कि स्वयं की कामना पूर्ति के लिए | निष्काम-कर्म भी बिना ज्ञान को आत्मसात
किये करने संभव नहीं है | इसलिए ज्ञान की भूमिका कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण रहती है |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
thanks for sharing
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