ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 17
श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्री
नरसिंह भक्त प्रह्लाद को कहते हैं – ‘भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं कलेवरं कालजवेन
हित्वा |' (भागवत-7/10/13) अर्थात भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल को और कुशलता
पूर्वक निष्काम-कर्म करते हुए पाप-कर्मों का नाश कर समय पर शरीर का त्याग करके
समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे | श्रीमद्भागवत महापुराण का यह
श्लोक स्पष्ट करता है कि पूर्वकृत पुण्य-कर्मों के फलों को तो भोगना ही होगा
परन्तु पूर्व में किये गए पाप-कर्मों को कुशलता पूर्वक निष्काम-कर्म करते हुए नष्ट
किया जा सकता है | कर्मों को कुशलतापूर्वक करना ज्ञान को आत्मसात करने से ही संभव हो
सकता है |
गीता में ही भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो
विजितेन्द्रियः |
युक्त इत्युच्यते योगी
समलोष्टाश्मकांचनः ||गीता-6/8||
अर्थात
जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और
मिट्टी तथा स्वर्ण में सम बुद्धि वाला है-ऐसा व्यक्ति योगी कहा जाता है |
जिसका मन, बुद्धि ज्ञान से
ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है उसका अहंकार भी नष्ट हो जाता है | इस प्रकार सम्पूर्ण
अंतःकरण तृप्ति को उपलब्ध हो जाता है | ज्ञान जब साधन से साध्य बन जाता है तब वह विज्ञान
कहलाता है | जब व्यक्ति का अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से संतृप्त हो जाता है तब उसकी
दृष्टि में मिट्टी और सोने में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रह जाता है | भेद न
रहने का कारण है कि उसने मन सहित सभी ग्यारह इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया
है, जिसके कारण उसके भीतर किसी भी प्रकार का विकार जन्म ही नहीं लेता है | ऐसा
निर्विकार और जितेन्द्रिय पुरुष योगारूढ़ कहलाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment