गहना कर्मणो गतिः -24
कर्म की गति को न जान पाने के कारण ही मनुष्य जन्म-जन्मान्तरों तक इस से उस
योनि में भटकता रहता है | जब मनुष्य योनि दैव योग से कभी उपलब्ध भी होती है, उसको भी
व्यर्थ के कर्म करके यूँ ही गंवा डालता है और फिर वही चौरासी का अटूट चक्र |
मनुष्य योनि देवताओं को भी सुलभ नहीं है और हम इसे महत्त्व ही नहीं दे रहे हैं |
इससे बड़ी और विडम्बना क्या होगी ? मुक्ति के
मार्ग गीता में भगवान ने स्पष्ट रूप से तीन बताये हैं | कर्म-मार्ग पर चलकर भी मुक्त
हुआ जा सकता है परन्तु मनुष्य कर्म के साथ अपने आप को जोड़ लेता है | कर्म के साथ जोड़ने
का कारण मोह है, जो हम स्व-निर्मित संसार के साथ कर लेते हैं | यह मोह ही हमें कर्मों
के प्रति आसक्त कर देता है | साथ ही हमें ऐसा लगाने लगता है कि यह कार्य हमारे अतिरिक्त
अन्य कोई नहीं कर सकता | यहाँ आकर कर्मासक्ति के साथ कर्ताभाव का पदार्पण होता है |
कर्तापन हमें सकाम कर्म से मुक्त ही नहीं होने देता | हम मोह में फंसकर स्वार्थी हो
जाते हैं और संसार की सेवा करना भूल जाते हैं | यही जड़ता पैदा होकर हमें जकड लेती है
और हमारे कर्मों में गति अवरुद्ध हो जाती है |
कर्म में बंधकर हम अपने जीवन में जड़ता को बढ़ा रहे हैं | हम यह भूल जाते हैं
कि मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता | एक बार यह जीवन निकल गया तो फिर न जाने चौरासी
को कटते-काटते पुनः यह मानव जन्म सुलभ होगा | अतः समय की धारा को इसी जन्म में पहचानना
होगा और कर्मों में आई जड़ता को तत्काल दूर करना होगा | कर्मों को गति दिए बिना इस जड़ता
का त्याग असंभव है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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