ज्ञानं लब्ध्वा परां
शांतिम् [ज्ञान से परम शांति ]
मनुष्य का जीवन कर्म प्रधान है, इसमें किसी
भी प्रकार का कोई भ्रम नहीं हो सकता | कर्म एक तो स्वभाव के वशीभूत होकर किये जाते हैं और दूसरे
बिना कर्म किये जीवनयापन करना भी संभव नहीं है | अतः कर्म करने से बचना लगभग असंभव
है | अतः हमें
यह जानना आवश्यक है कि हमारे द्वारा कर्म किस प्रकार के हों, जिससे हमें
भविष्य में न्यूनतम हानि और अधिकतम लाभ प्राप्त हो | यहाँ हानि और लाभ का केवल अर्थ की हानि और लाभ होने से नहीं है
बल्कि जीवन मूल्यों के पतन और उत्थान से है | संसार में सभी प्राणी सदैव कर्म में रत
रहते हैं परन्तु स्वेच्छा से कर्म करने
की स्वतंत्रता केवल मनुष्य को ही मिली है | इस स्वतंत्रता का उपयोग वह किस प्रकार करता है, यह उसके विवेक पर निर्भर करता है |
प्रत्येक प्राणी में एक भौतिक शरीर
होता है, उस शरीर को चेतनता प्रदान करने के लिए मन, बुद्धि और अहंकार के साथ परमात्म-तत्व, जिसे आत्मा
भी कहा जाता है. आकर सम्मिलित
हो जाते हैं | भौतिक शरीर के साथ इन चार तत्वों, जिन्हें सम्मिलित रूप से जीवात्मा
कहा जा सकता है, के मिल जाने से जीव का अस्तित्व बनता है | आत्मा का स्वरूप वैसे तो
परमात्मा का ही है परन्तु जब वह जीव (मन, बुद्धि और अहंकार) के संग हो जाती है, तब जीवात्मा बनकर भौतिक शरीर में स्थित इन्द्रियों
के माध्यम से विषय-भोग करती है | विषय-भोग
के कारण
उसका विषयों के गुणों
से संग हो जाता है, जो शरीर से उन विषयों को बार-बार उपलब्ध करवाने के लिए उसे कर्म करने को बाध्य करता है | भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि
भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसंगोSस्य सद्सद्योनिजन्मसु ||गीता-13/21||
अर्थात प्रकृति में स्थित
हुआ पुरुष ही प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी और बुरी योनियों
में जन्म लेने का कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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