ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 16
ज्ञान के द्वारा कर्मों को नष्ट करने
का दूसरा रास्ता है, कर्मों के विज्ञान को जान लेना | कर्मों के होने के तरीकों को
जान लेने से भी कर्म नष्ट हो जाते हैं | कर्मों का विज्ञान कहता है कि कर्म गुणों
के गुणों में क्रिया होने से ही होते हैं, मनुष्य इन क्रियाओं का कर्ता नहीं है |
इस बात का ज्ञान हो जाने पर व्यक्ति उन कर्मों को अपने द्वारा किया जाना मानता ही
नहीं है | जब कर्म व्यक्ति स्वयं नहीं करता है बल्कि उन्हें गुणों में गुणों की क्रिया द्वारा होना मानता है, ऐसे में उसके द्वारा किया गया कोई भी कर्म अनुचित हो ही नहीं सकता
| ऐसे में पूर्व कृत सभी कर्म भी नष्ट हो जाते हैं और भविष्य में किये जाने वाले
कर्मों का स्वरूप भी परिवर्तित हो जाता है | इसीलिए गीता में आगे भगवान श्री कृष्ण
कहते हैं –
न
हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं
योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति || गीता-4/38||
अर्थात
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है | ज्ञान को
कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्ध अन्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा
में पा लेता है |
निष्काम-कर्म करने वाले मनुष्य का
अंतःकरण शुद्ध हो जाता है | यह कर्म-योग है, जिसमें मन और इन्द्रियों को नियंत्रित
कर लिया जाता है और यह सब बुद्धि और विवेक के जाग्रत हो जाने से ही संभव है |
ज्ञान जब बुद्धि में समा जाता है तब आत्मा के द्वारा उसको विवेक में परिवर्तित कर
दिया जाता है | आत्मा कोई बाह्य तत्व नहीं है, बल्कि आप स्वयं ही आत्मा है | स्वयं
के द्वारा बुद्धि में ज्ञान को ले लेने के उपरांत आप स्वयं ही उसे विवेक में
परिवर्तित कर सकते हैं | इसीलिए कहा जाता है कि विवेक भीतर से जाग्रत होता है जबकि
ज्ञान बाहर से प्राप्त किया जाता है | विवेक कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन कर
सकता है | इस प्रकार या तो कर्म नष्ट हो जाते हैं अथवा कर्मों का स्वरुप परिवर्तित
हो जाता है | दोनों ही परिस्थितियों में व्यक्ति में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने
लगता है | इसीलिए गीता के इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि ज्ञान के
समान पवित्र करने वाला निःसंदेह अन्य कोई नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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