गहना कर्मणो गतिः -21
सभी कर्म फलदायी होते है, सिवाय अकर्म के | अकर्म वे कर्म हैं, जो मनुष्य
को अपने जीवन में करने तो पड़ते हैं परन्तु इन कर्मों को वह बिना किसी कामना के और
प्रकृति के गुणों को ही कारण मानते हुए करता है तथा उनसे प्राप्त फल को परमात्मा
को अर्पित कर देता है | इस प्रकार वह कर्म करते हुए भी उन कर्मों का कर्ता नहीं
होता | कर्म तो प्रकृति के गुणों से ही संभव है, इसमें आपका कोई योगदान नहीं है, फिर भी कर्म के साथ
हम अपने आपको जोड़ लेते हैं | इसे ही कर्ता भाव कहते हैं | जब हमारा विवेक जागृत हो
जाता है, तब हममें कर्ता भाव भी समाप्त हो जाता है | ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेने
पर हम कर्म करते हुए भी नहीं करते हैं | इन कर्मों को ही अकर्म कहा जाता है | इसी
लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है –
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः |
स बुद्धिमान्मनुष्यषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्
||गीता-4/18||
अर्थात जो मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है और जो
अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों
को करनेवाला है |
कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाला समस्त कर्मों को करने वाला
योगी है | योग किसके साथ ? कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाला कौन ?
समस्त कर्मों को करने वाला योगी कौन ? तीनों प्रश्नों का एक ही उत्तर- योगेश्वर
श्री कृष्ण अर्थात परमत्मा | अतः यह माना जा सकता है कि ऐसे कर्मों से जो गति होती
है, उसको वह उच्च, निम्न अथवा मध्यम गति न कहकर केवल मुक्ति ही कहा जा सकता है
अर्थात परमात्मा के साथ नित्य योग |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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