ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 15
शांति प्राप्त करने का ज्ञान-मार्ग के
अनुसार दूसरा तरीका है, कर्मों को करने के बाद उन्हें नष्ट कर देना | प्रत्येक
व्यक्ति किसी न किसी प्रकार का कर्म अवश्य ही करता है परन्तु सभी व्यक्ति अपने
कर्मों को नष्ट नहीं कर सकते | कर्मों को नष्ट वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे
कर्मों के बारे में ज्ञान प्राप्त हो गया हो | कर्मों के ज्ञान का अर्थ है कर्म के
विज्ञान को जानने से, कर्मों के स्वरुप को पहचान लेने से और कर्मों की गति को समझ
लेने से | कर्मों को नष्ट कर देना इतना ही सरल होता तो प्रत्येक व्यक्ति विकर्म
करके बाद में उन्हें नष्ट कर सकता था | परन्तु इतना आसान नहीं है, इन कर्मों को
नष्ट करना | जिसको कर्मों का प्रत्येक कोण से ज्ञान हो गया है वह भविष्य में किसी
प्रकार के वर्जित कर्म करता ही नहीं है, केवल ऐसे पुरुष ही कर्मों को नष्ट करने के
अधिकारी होते हैं | श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
यथैधांसि
समिद्धोSग्निर्भस्मसात्कुरुतेSर्जुन |
ज्ञानाग्निः
सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || गीता-4/37||
अर्थात
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञान
रुपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है |
धधकती ज्वाला में जो भी वस्तु अग्नि
उत्पन्न करने वाली होती है, उसको अगर डाला जाये तो वह भी अग्नि को समर्पित होकर
भस्म हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में कर्म का इंधन डालने पर वह भी भस्म
हो जाता है | इस श्लोक के अनुसार ज्ञान अग्नि के समान है और कर्म ईंधन के समान | ज्ञान
की अग्नि न हो तो कर्म का ईंधन समाप्त नहीं हो सकता | कर्मों को समाप्त करने के
लिए ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है | यह ज्ञान कर्मों को किस प्रकार नष्ट करता है,
इसके दो रास्ते हैं | एक तो कर्म करने के बाद ज्ञान के द्वारा यह स्वीकार कर लेना
कि किया गया कर्म निम्न प्रकृति का था और भविष्य में इसकी पुनरावृति नहीं होगी |
ऐसा हो जाने पर पूर्व में किये गए पाप-कर्म भी नष्ट हो जाते हैं | डाकू अंगुलिमाल
और रत्नाकर इसके उदाहरण हैं | दोनों को जब इस बात का ज्ञान हो गया था जिससे तत्काल
ही अंगुलिमाल तो महान बौद्ध-भिक्षु बन गया था और डाकू रत्नाकर महाकवि वाल्मीकि,
जिनकी रचना वाल्मीकि रामायण जग प्रसिद्ध है |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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