ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 19
सीधे भक्ति-मार्ग पर निकल पड़ना
केवल पूर्वजन्म से साथ आये संस्कार से ही संभव है अन्यथा तो व्यक्ति अपने जीवन का प्रारम्भ
सकाम–कर्म करने से ही करता है | भक्ति श्रद्धा का विषय है, जबकि कर्म तथा ज्ञान का
कुछ करने से | कर्म-मार्ग से भक्ति-मार्ग पर जाने का रास्ता ज्ञान के द्वारा ही
मिलता है अन्यथा व्यक्ति कर्म-बंधन में ही जकड़ा रह जाता है | ज्ञान जब विवेक में
परिवर्तित हो जाता है, तब भक्ति-मार्ग को आसानी से पाया जा सकता है | ज्ञान को
विवेक में परिवर्तित करने के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है और वह
माध्यम है गुरु अर्थात संत, जिसको भक्ति-मार्ग पर चलने का अनुभव है | गोस्वामीजी
श्री रामचरितमानस में कहते हैं – ‘बिनु सत्संग विवेक न होई | राम कृपा बिनु सुलभ न
सोई ||’ विवेक को पाने के लिए सत्संग आवश्यक है और सत्संग भी बिना प्रभु-कृपा के
मिलना असंभव है |
अगर भक्ति-मार्ग पर सीधे चलना इतना
ही सरल होता तो आज इस संसार में बहुधा लोग इसी मार्ग पर चलते हुए दिखाई पड़ते | हम
प्रायः संगीतमय प्रभु-भजन और प्रभु-कथा को सत्संग मान बैठते हैं | ऐसा मानना आंशिक
रूप से तो सत्य हो सकता है, परन्तु पूर्ण सत्य नहीं है | यह भक्ति-मार्ग पर अग्रसर
होने की तैयारी भर है, भक्ति मार्ग पर यात्रा का प्रारम्भ नहीं | प्रायः व्यक्ति
इसी प्रकार के भजन, पूजन और कथा श्रवण पर ही पहुंचकर अटक जाता है | केवल इस अवस्था
पर आकर अटक जाने को मैं दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ | यह तो ऐसा ही हुआ कि आप आकर
गाड़ी में तो बैठ गए, परन्तु न तो आपके पास गाड़ी की चाबी है और न ही कोई चालक |
केवल गाड़ी में बैठ जाना ही यात्रा प्रारम्भ कर गंतव्य तक पहुँच जाना नहीं है |
इसके लिए गाड़ी को चलाने के लिए उस गाड़ी की चाबी और उसको चलाने के लिए चालक, दोनों
की आवश्यकता होती है | भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए चाबी है ज्ञान और चालक है गुरु
| एक बार गाड़ी के चल पड़ने पर आपको इसे चलाना भी सीखना होगा तभी आप गंतव्य यानि
परमात्मा तक पहुँच सकते हो |
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ.प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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