Friday, April 7, 2017

गहना कर्मणो गतिः -23

गहना कर्मणो गतिः -23
         कर्मों में जड़ता, मनुष्य की जड़ता बन जाती है | इस जड़ता को गति अर्थात चेतनता देना आवश्यक है | ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदासजी कहते हैं कि अपने सुख के लिए कर्म करना अर्थात अपना सुख चाहना यानि केवल स्वयं के लिए जीना ही जड़ता है | यहाँ तक कि केवल अपने लिए भजन करना भी जड़ता है | दूसरों के लिए कर्म करना, दूसरों को सुख पहुँचाना ही चेतनता है | जड़ता त्यागकर गतिमान होना आवश्यक है और जीवन को गतिमान बनाये रखना ही स्वामी जी के अनुसार ‘चेतनता’ है |
                     इस प्रकार सम्पूर्ण विवेचन से एक बात स्पष्ट होती है कि इस संसार में मनुष्य योनि में आकर कर्म करने ही पड़ते हैं | कर्म दो प्रकार से किये जा सकते हैं | प्रथम प्रकार के कर्म आप अपने  स्वभावानुसार कर सकते हैं | अगर आपने अपने स्वभाव से कर्म करना प्रारम्भ कर दिया तथा उन कर्मों में कर्ताभाव नहीं रखा तो फिर सभी कर्म अकर्म बन जाते हैं | ऐसे में आप कर्म करते हुए भी कर्म नहीं कर रहे हैं | यह स्थिति आपको तुरंत ही मुक्त कर देती है | ऐसे कर्म तभी हो सकते हैं, जब जीवन के प्रारम्भ में ही आप अपनी मनपसंद के कर्म क्षेत्र का चुनाव कर लें | आपकी पसंद आपका स्वभाव स्वतः ही बता देता है | जब एक बार आपने अपनी पसंद के कर्म निश्चित कर लिए, फिर जीवन में न तो कभी आप उन कर्मों में आसक्त होंगे और न ही विरक्त | आपके लिए इस प्रकार के कर्म करने सहज हो जायेंगे | इनसे आप न तो बंधेंगे और न ही पलायन करेंगे | इन्हें ही सहज-कर्म कहा जाता है | ऐसे कर्मों को करते हुए भी आप उन्हें नहीं करते हैं | इस प्रकार ये सहज-कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और फल नहीं देते | परन्तु सहज-कर्म करना इतना आसन नहीं है | सांसारिक परिस्थितियों के प्रभाव में आकर मनुष्य सहज-कर्म का मार्ग छोड़कर सकाम-कर्म अथवा विकर्म की ओर अग्रसर हो जाता है, जिससे कर्म की गति ही परिवर्तित हो जाती है | ये दूसरे प्रकार के कर्म है, जिनमें कर्ता भाव शीघ्र आ जाता है |
              दूसरे प्रकार के कर्म आप अपने स्वभाव के साथ साथ इच्छानुसार करना प्रारम्भ कर सकते है, जो कि प्रायः मनुष्य करते ही हैं, तो फिर निरंतर कर्मों को गति देते हुए उनमें सुधार करना आवश्यक है | इसे ही कर्मों की गति कहा जाता है जो कि वास्तव में गहन है | इसका कारण यह है कि हम कर्मों को गति तो प्रदान करते हैं और फिर उन गतिमान कर्मों में आसक्त हो जाते है | ऐसे में प्रारम्भ की गयी कर्म में गति स्थिर हो कर पुनः जड़ता को प्राप्त हो जाती है और हम परमगति को प्राप्त नहीं हो सकते | परमगति के लिए कर्मों को उनका स्वरुप बदलते हुए सदैव गतिमान रहने दें और स्वयं में कर्तापन पैदा न होने दें | कर्तापन पैदा न हो, इसके लिए सभी कर्मफल और कर्म परमात्मा को अर्पण कर दें | कर्मों की गति के लिए बल आवश्यक है, और वह बल ‘आत्म-बल’ है | आत्म-बल ही परमात्मा है | सूरदासजी ने सत्य ही कहा है-
अपबल, तपबल, बहुबल, चौथा बल है राम |
सूरकिशोर कृपा से सब बल, हारे को हरिनाम ||
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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