Saturday, April 15, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 5

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 5
ज्ञान (Knowledge) –
          ज्ञान क्या है ? इसकी क्या परिभाषा है ? वैसे देखा जाये तो ज्ञान की कोई सर्वसम्मत एक परिभाषा नहीं है और हो भी नहीं सकती क्योंकि ज्ञान को समझाने और समझने के लिए मात्र कुछ शब्द ही पर्याप्त नहीं है | ज्ञान शब्दों की पहुँच से बहुत ही दूर है | मेरी दृष्टि में ज्ञान वह ग्राह्य तत्व है, जो बुद्धि के द्वारा ग्रहण किया जाता है | बुद्धि में ज्ञान के प्रवेश करते ही विचार आने प्रारम्भ हो जाते हैं और ज्यों ही बुद्धि विचार की अवस्था से निकलकर जीवन में ज्ञान का उपयोग करती है, वह विवेक बन जाती है | कहने का अर्थ है कि केवल ज्ञान का बुद्धि में प्रवेश कर जाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में उतारना अधिक महत्वपूर्ण है |
           बुद्धि विचार का जीवन है जबकि विवेक होश का जीवन है | व्यक्ति विचार करता है, तो पक्ष-विपक्ष और तर्क-वितर्क साथ-साथ चलते हैं और व्यक्ति द्वंद्व में फंस जाता है | अंततः जो अधिक प्रभावी होता है, व्यक्ति उसी मार्ग पर चल देता है | जबकि विवेकपूर्ण जीवन तर्क-वितर्क का जीवन न होकर सतर्कता का जीवन है | बुद्धि में केवल ज्ञान का होना मात्र एक बोझ है जबकि विवेक ज्ञान का बोध है | बुद्धि में ज्ञान का बोझ अहंकार और बंधन पैदा करता है, जबकि बोध हमें हल्का और मुक्त करता है | ज्ञान बाहर से मिलता है जबकि विवेक भीतर से जाग्रत होता है | विचार विकार पैदा कर सकते हैं जबकि सतर्कता हमें विकारों में उलझने नहीं देती | बुद्धि में उपस्थित ज्ञान हमें जीवन-पथ के काँटों से सुरक्षित रखता है जबकि विवेक हमारे द्वारा दूसरों को भी इन काँटों में उलझने से बचाता है | अतः मात्र ज्ञान ग्रहण कर विचार पैदा करने से कुछ नहीं होगा | आवश्यकता है विचारवान से विवेकी बनने की | केवल बुद्धि में ज्ञान ठूंसकर हम अहंकारी ही हो सकते हैं, अतः इससे अधिक महत्वपूर्ण उस ज्ञान से विवेकवान बनकर जीना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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