गहना कर्मणो गतिः – 22
अब प्रश्न यह उठता है कि कर्मों की गति में हमारा उत्थान हो रहा है अथवा पतन,
यह किस प्रकार जाना जा सकता है | मनुष्य का ऐसा ही स्वभाव हो गया है कि वह बिना विश्लेषण
किये ही अपने कर्मों को स्वतः ही श्रेष्ठ-कर्म होने का दर्जा दे देता है | जीवन में
मनुष्य की बुद्धि स्वयं को न देख पाने को विवश है क्योंकि यह संसार हमारे भीतर में
इस प्रकार रच-बस गया है कि हमारी बुद्धि तक स्वार्थी हो गयी है | स्वार्थ हमें अंधा
कर देता है. ऐसे में हमारी बुद्धि की तो बिसात ही क्या है | आध्यात्मिक व्यक्ति आपने
कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन को अर्थात कर्मों में हो रही गति को देख सकता है | भगवान
श्री कृष्ण गीता में कहते हैं –
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता |
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोSसि पाण्डव ||गीता-16/5||
अर्थात दैवी सम्पति मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पति
बंधन के लिए मानी गयी है और हे पाण्डव ! तुम दैवी सहमति को प्राप्त हुए हो, इसलिये
चिंता मत करो | साथ ही भगवान श्री कृष्ण गीता के इसी अध्याय में कहते है कि इस संसार
में दो ही प्रकार के मनुष्य है – एक तो दैवी-सम्पदा से युक्त और दूसरे आसुरी-सम्पदा
वाले |
इस श्लोक में सम्पति शब्द कर्म-सम्पति से है | कर्म ही संचित होकर सम्पति बनते
हैं, जिसका उपयोग मनुष्य उस सम्पति के गुणों के आधार पर कर्म करता है | दैवी सम्पति
का अर्थ है, कर्मों में गति उत्थान के लिए हुई है जबकि आसुरी सम्पति का अर्थ है कि
वह गति पतन की ओर ले जाने वाली है | मनुष्य
को स्वयं के द्वारा इस सम्पति का अनुमान लगा पाना थोडा असंभव है | गीता में भगवन श्री
कृष्ण ने 16 वें अध्याय में दैवी सम्पदा से युक्त मनुष्य में उपस्थित 26 गुणों और आसुरी
सम्पदा से युक्त मनुष्य के 5 गुणों का वर्णन किया है | गति दोनों ही प्रकार की सम्पति
प्राप्त करने वालों के कर्मों में हो रही है, बस केवल गति की दिशा में अंतर है |
स्वयं में उपस्थित सम्पति को आप
अपने द्वारा किये जाने वाले व्यवहार और होने वाले कर्मों से पहचान सकते हैं | यह निश्चित
है कि कर्मों से गति भी उसी अनुरूप होगी | इसमें शोक करने का कोई कारण नहीं है |
अपने कर्मों में गति लाते हुए, उनके स्वरूप को परिवर्तित कर आसुरी सम्पति को दैवी सम्पति
में भी परिवर्तित कर सकते हैं | इसके लिए आसुरी सम्पति के कारण पैदा हुयी कर्मों में
जड़ता को समाप्त करना होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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