Saturday, April 1, 2017

गहना कर्मणो गतिः -17


गहना कर्मणो गतिः – 17   
        कर्मों को गति देने के लिए आत्म-बल आवश्यक है | आत्म-बल से स्वभाव परिवर्तित हो सकता है | अगर आप अपने पूर्व जन्म से मिले स्वभाव के अनुसार सकाम-कर्म ही करते जा रहे हैं, तो आपको निष्काम कर्म की ओर प्रगति करनी चाहिए | इस कार्य के लिए आपका आत्म-बल ही भूमिका निभाएगा और आप अपने स्वभाव में परिवर्तन करते हुए निष्काम कर्म करने लगेंगे | विकर्म से सकाम और फिर निष्काम-कर्म और अंत में कर्म के फल का त्याग; इस प्रकार आप जीवन मुक्त हो सकते हैं | इसके विपरीत जब व्यक्ति का आत्म-बल क्षीण हो जाता है, तो फिर उसको अपनी स्थिति से भी गिरते देर नहीं लगती अर्थात व्यक्ति उत्थान के स्थान पर पतन की राह पर चल पड़ता है | बल उत्थान और पतन, दोनों ही के रास्तो पर ले जा सकता है अंतर केवल बल लगने की दिशा का है | बल सही दिशा में लगा तो कर्मों की गति उत्थान की तरफ ले जाएगी और अगर यही बल विपरीत दिशा में लग गया तो कर्मों की गति पतन की ओर अग्रसर कर देगी | इसीलिए भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं –
          उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसदायेत् |
          आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः || गीता-6/5 ||
अपने द्वारा स्वयं का उद्धार करे और अपने को अवसादग्रस्त न होने दे क्योंकि यह मनुष्य स्वयं ही तो अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु |
        मनुष्य अपने आत्म-बल से ही उत्थान की अवस्था को उपलब्ध हो सकता है | उत्थान और पतन दोनों ही परिस्थिति के कर्मों से कर्मबंधन हो सकता है, ऐसे में कर्मों में जड़ता पुनः आ सकती है | इसलिए परमगति के लिए आवश्यक है कि हम कर्मबंधन से मुक्त हों | कर्मबंधन से मुक्त तभी हो सकते हैं जब कर्म करने और न करने, दोनों ही परिस्थितयों से बाहर निकल जाएँ | इसी को कर्म में अकर्म देखना और अकर्म में कर्म देखना कहते हैं | यह समत्व योग है जिसको धारण करने से व्यक्ति परमगति को उपलब्ध हो जाता है | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - ‘तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्’ (गीता-2/50) अर्थात समत्व रुपी योग ही कर्मों में कुशलता है जो कर्मबंधन से मुक्त होने का एक मात्र उपाय है | कर्म को गति देते हुए कर्मों में कुशलता लायें और कुशल कर्मों को करने में समता रखें, तभी कर्मबंधन नहीं होगा | कर्म बंधन में केवल वही लोग मुक्त हो सकते हैं, जिन्होंने सभी कर्म परमात्मा को अर्पण कर दिए हों | कर्म परमात्मा को तभी अर्पित किये जा सकते हैं, जब आप में कर्तापन नहीं हो | कर्ता-भाव ही कर्मबंधन पैदा करता है और जड़ता भी | ऐसे में न तो कर्मों को गति मिलती है और न ही व्यक्ति को परम गति |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment