गहना कर्मणो गतिः -16
कर्म में गति -
जब स्वभाव के कारण कर्म स्वतः ही होते हैं, फिर ऐसे में कर्म में गति होना कैसे
संभव है और वह गति भी इतनी गहरी कि उसको
समझना बड़ा मुश्किल है ? हाँ, यह सत्य है कि कर्म स्वभाव के वश में है परन्तु स्वभाव
को परिवर्तित करना तो मनुष्य के वश में है न | जब स्वभाव बदला जा सकता है तो
अप्रत्यक्ष रूप से कर्म भी बदले जा सकते हैं | मनुष्य की यही तो विडम्बना है कि वह
अपना स्वभाव बदलने के स्थान पर कर्म करने अथवा नहीं करने की ही सोचता रहता है | ऐसा
विचार करने के स्थान पर कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करने का विचार करना चाहिए
जिससे हमारा स्वभाव परिवर्तित हो सके | भविष्य में हमारा स्वभाव ही हमारे कर्म
निश्चित करेगा |
जैसे
एक भौतिक पिंड की गति के लिए बल आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार कर्मों में गति पैदा
करने के लिए भी बल आवश्यक है | यदि हम अपने कर्मों में गति नहीं लायेंगे तो हम भी
जड़ता में जकड लिए जायेंगे | जड़ता का अर्थ है, जो जैसे चल रहा है, उसको वैसे ही
चलते देना, उसी में संतुष्ट रहना | कर्मों में जड़ता तभी आती है, जब हम उन कर्मों
के प्रति आसक्त हो जाते हैं | कर्मासक्ति ही कर्म-बंधन पैदा करती है और इस
कर्म-बंधन को ही कर्म-जड़त्व कहते हैं अर्थात एक ही प्रकार के कर्म में उलझे रहना |
केवल पूर्वजन्म से मिले स्वभाव के अनुसार ही कर्म करते रहना कर्म-जड़त्व है और
कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित कर स्वभाव को परिवर्तित कर देना कर्म में गति है | अभी
विज्ञान के अनुसार हमने चार आधारभूत बलों का वर्णन किया था और कहा था कि विज्ञान
अब कह रहा है कि इन बलों के अतिरिक्त एक पांचवां बल भी ओर हो सकता है जो इन चार
बलों का कारण बल है | विज्ञान अभी तक इस पांचवें कारण बल को ज्ञात नहीं कर पाया है
परन्तु शास्त्रों में इस बल का वर्णन आता है | हमारा सनातन-ज्ञान कहता हैं कि सब
आधारभूत बलों का कारण है, “आत्म-बल” | जब तक आत्म-बल नहीं होगा, सभी बल अप्रभावी
रहेंगे | आत्म-बल के कारण ही सभी कर्म गतिमान होते हैं अन्यथा सब बल व्यर्थ हैं | इस
आत्म-बल के कारण व्यक्ति की सोच ही बदल जाती है | आत्म-बल अर्थात परमात्मा का बल,
जिसके कारण ही सभी आधारभूत बलों का अस्तित्व लेना संभव हुआ है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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