गहना कर्मणो गतिः -15
कर्म की गति दो प्रकार की होती है - प्रथम- कर्म में गति और दूसरी कर्म से
गति | कर्म में गति कर्मों के स्वरुप में होने वाले परिवर्तन को कहते हैं जबकि कर्म
से गति, कर्म से मिलने वाले परिणाम को कहते हैं | गति कार्य है, बल उसका करण है और
हमारी इच्छा, हमारे विचार कारण हैं | जैसा कि हम जानते है कि प्रत्येक कार्य का
परिणाम भी निश्चित होता है | जो परिणाम कर्मों का मिलना निश्चित है, उसे ही कर्मों
से गति होना कहते हैं क्योंकि इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को एक
योनि से दूसरी योनि में गति करनी पड़ती है | स्वामी शिवानन्द कहते हैं कि ‘प्रत्येक
कर्म की एक पूर्वावस्था होती है | उस कर्म का एक भविष्य होता है, जो उस कर्म से ही
उत्पन्न होता है | कर्म को बनाने में एक इच्छा होती है जो उसे प्रेरित करती है और
एक विचार होता है जो उस को आकार देता है | कार्य और कारण के बीच प्रत्येक कर्म एक
कड़ी होता है | प्रत्येक कार्य स्वयं ही कारण बन जाता है और प्रत्येक कारण पहले
कार्य बन चूका है | इस अनंत श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी इच्छा, विचार और क्रिया रूपी
तीन अवयवों से बनी हुयी होती है | इच्छा विचार को चलाती है और विचार क्रिया के रूप
में परिणित हो जाता है |’
स्वामी शिवानन्द ने जिस प्रकार कर्म की व्याख्या की है, उसके अनुसार
प्रत्येक कर्म का भी पूर्व का कोई कर्म कारण होता है और उस नए कर्म का जो भी
परिणाम होता है, वह फिर से भविष्य में नए जन्म में जाकर किये जाने वाले कर्म का
कारण बन जाता है | इस प्रकार कर्म इस जीवन-चक्र का प्रमुख आधार है, जो मनुष्य को
इसी संसार में ही घुमाता रहता है | संसार-चक्र में ही विचरण करते रहना ही मनुष्य जीवन
का उद्देश्य नहीं है | इस विचरण को विराम देना आवश्यक है और इसके लिए कर्मों की
गति को प्रगति में बदलना होगा | कर्मों के नियमित चक्र को तोड़ते हुए अपने आत्म-बल
से सद्गति की ओर प्रस्थान करना होगा | इसके लिए कर्मों में गति लाना आवश्यक है
जिससे इस जीवन के बाद कर्मों से गति प्राप्त की जा सके |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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