Wednesday, March 1, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 56 समापन कड़ी

सार-संक्षेप (Summary of essence) -
            गुण-कर्म विज्ञान को जानने और समझने से अनुभव होता है कि मनुष्य का यह शरीर मात्र एक पदार्थ (Matter) होने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | यह पदार्थ की तरह ही व्यवहार (Behave) करता है, जिसके तीनों गुण पूर्व नियोजित (Pre-planned) क्रियाएं (Activities) समयानुसार करते रहते हैं | मनुष्य का मन इन क्रियाओं को स्वयं के द्वारा होना/करना मानने लगता है | ऐसा मानने के कारण ही मनुष्य अपने आप को शरीर मानने लगता है | हम शरीर नहीं है, बल्कि इस शरीर से आनंद लेने के लिए हैं | इस आनंद को लेने वाले का नाम ही आत्मा है | संस्कृत भाषा में ‘आत्म’ का अर्थ होता है - ‘मैं’ | इस ‘आत्म’ शब्द के कारण ही इस चेतन तत्व को, जो की आप स्वयं है, ‘आत्मा’ कहा जाता है | आप स्वयं को शरीर न समझे बल्कि इस शरीर को चेतन करने वाला तत्व ‘आत्मा’ समझें | शरीर से आनन्द प्राप्त करने के लिये स्वयं परमात्मा ही चेतन तत्व (Consciousness) बनकर आत्मा के रूप में इसमें प्रवेश करते हैं | परमात्मा ने एक से अनेक होने की कामना ही आनन्द प्राप्ति के लिए की थी (सोSकामयात बहुस्यामि ) जिसके कारण विभिन्न प्रकार के शरीरों का अस्तित्व (Existence) संभव हुआ | आनंद के लिए उन्होंने स्वयं को तीन रूपों में विभक्त किया – सत, चित्त और आनंद | इस कारण से ही उनको सच्चिदानंद कहा गया है | सत से आत्मा अर्थात आप स्वयं हुए, चित्त शरीर को चैतन्य करने के लिए आत्मा के सहयोगी के रूप में मन बना तथा आनंद के लिए यह संसार बना जिसकी इकाई (Unit) हमारा यह भौतिक शरीर है | इसका अर्थ यह है कि जब तक यह शरीर है, तब तक ही यह आपका संसार है |
             सभी क्रियाएं शरीर में होती है और वह क्रियाएं मन के अनुसार आनंद प्राप्त करने के लिए होती है | आत्मा इन सभी क्रियाओं से निरपेक्ष (Neutral) रहती है | अतः शरीर क्रियाएं करता है और मन के अनुसार ये क्रियाएं संपन्न होती रहती है | इन क्रियाओं से आपका अर्थात आत्मा का कोई लेना देना नहीं रहता | परन्तु जब आप स्वयं को शरीर मान लेते हैं और इन क्रियाओं को आप स्वयं के द्वारा होना मान लेते हैं तब ये कर्म (Actions) बन जाती हैं | शरीर से होने वाली क्रियाएं जब आप अपने मन के अनुसार करवाने लगते हैं, तब आपके कर्मों में भी परिवर्तन (Changes) होने लगते हैं | परिवर्तित कर्म गुणों (Properties) को परिवर्तित कर देते हैं जिस कारण से आपको आनन्द प्राप्त नहीं हो पाता बल्कि आप सुख-दुःख, राग-द्वेष, मान-अपमान आदि अनेकों द्वंद्व में फंस जाते हैं | ऐसे में आप कर्म के प्रति आसक्त हो जाते हैं | इसी को ही कर्म-बंधन कहते हैं | परिणाम स्वरूप आप नए-नए शरीर प्राप्त करते हुए इसी संसार में भटकते रहते हैं और आप आनन्द को उपलब्ध नहीं हो पाते |
         आनंद के लिए आपको आत्म-ज्ञान (Knowledge about self) होना आवश्यक है | आत्म-ज्ञान अर्थात स्वयं को पहचान लेना कि आप शरीर स्वरूप न होकर चिदानंद स्वरूप हैं | ऐसे में आप समस्त कर्मों को मात्र गुणों की आपस में क्रियायें मानते हुए कर्मों में आसक्त नहीं होंगे | यही आपकी मुक्ति है, यही आनन्द है और यही आत्म-ज्ञान (Self-consciousness) है |
प्रस्तुति –डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||
पुनश्चः - कल से उतराखंड की यात्रा पर रहूँगा, वहां तकनीकी संपर्क प्रायः अच्छा नहीं रहता है ऐसे में शीघ्र ही सभी साधन उपलब्ध होते ही आप से पुनः संपर्क होगा | आभार |
|| हरिः शरणम् ||

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