गहना कर्मणो गतिः -2
ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा
करते थे कि आपने अपने जीवन के प्रारम्भ से अब तक जो कुछ भी करना था, कर के देख
लिया, जानना चाहते थे उसको जानने का प्रयास भी कर लिया, फिर भी परमात्मा के पास तक
पहुँच नहीं पाए, उसको जान नहीं पाए | जब उसको जान नहीं पाए और उसके अस्तित्व से भी
इंकार नहीं है तो फिर मान लेने में ही भलाई है | मैं उनकी इस बात से शत प्रतिशत सहमत
हूँ | अज्ञात को जानने के लिए सर्वप्रथम उसको मानना ही पड़ता है | बिना कुछ माने
सत्य को जाना नहीं जा सकता | गणित और विज्ञान का मूलभूत सिद्धांत भी यही कहता है
कि सत्य को जानने से पहले उसकी एक परिकल्पना (Hypothesis) करनी पड़ती है, तभी हम वास्तविक सत्य तक पहुँच पाते हैं | प्रारम्भिक शिक्षा
में गणित के अध्ययन में हमने भी कई बार प्रश्न के सही हल तक पहुँचने के लिए एक
संख्या की कल्पना तक की है जैसे माना कि राम के पास 100 रु. हैं अथवा सीता के पास
कुल X रु. हैं | इस प्रकार कुछ न कुछ मानकर ही वास्तविक उत्तर तक पहुँचते थे | अतः
यह स्पष्ट है कि अगर सत्य को जानना है तो सर्वप्रथम हमें कुछ न कुछ उस सत्य के
बारे में मानना ही होगा |
श्री मद्भगवद्गीता में करना. जानना, मानना और आश्रय लेना, ये चार प्रमुख
बातें हैं | ‘करना’, कर्म-योग है, ‘जानना’, ज्ञान-योग है, ‘मानना’, भक्ति-योग है
और ‘परमात्मा का आश्रय लेना’, शरणागति है | इसी प्रकार हमारे जीवन काल में भी चार
अवस्थाएं होती है | जिनका क्रम है- बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रोढ़ावस्था ओर
वृद्धावस्था | पूर्वकाल में इसे आश्रम व्यवस्था कहा जाता था जिसके अंतर्गत
प्रत्येक आश्रम के निश्चित कर्म, सिद्धांत, दायित्व और नियम हुआ करते थे जिन्हें
आश्रम-धर्म कहा जाता था | ये चार आश्रम क्रमवार इस प्रकार थे – ब्रह्मचर्याश्रम,
गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम | यह आश्रम व्यवस्था चाहे प्रारम्भ
में किसी भी कारण से बनाई गयी हो, आज वह व्यवस्था लगभग अपना दम तोड़ चुकी है | आज
इस कलियुग में समस्त आश्रम एक दूसरे में गडमड हो चुके हैं | इसलिए आज के सन्दर्भ
में इसकी व्याख्या भी अलग रूप से करनी आवश्यक हो गयी है | अतः इन आश्रमों के स्थान
पर मैंने इन्हें अवस्थाओं का नाम दिया है | इसीलिए प्रारम्भ में ही मैंने स्पष्ट
कर दिया था कि गीता में वर्णित चारों बातें मनुष्य के जीवनकाल की अवस्थाओं के
अनुसार ही स्पष्ट की गयी है | मेरा यह कहना अतिश्योक्ति भी नहीं होगा क्योंकि गीता
जिस समय कही गयी थी, उसके तुरंत बाद ही कलियुग का प्रारम्भ हो गया था, जबकि आश्रम
व्यवस्था सतयुग की बात थी |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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