गहना कर्मणो गतिः -14
यहाँ तक हमने विज्ञान और शास्त्रों में उल्लेखित गति और प्रगति के नियमों
का अल्प रूप से तुलनात्मक विश्लेषण किया है | कर्म की गति कैसे होती है ? आइये !
इसको जानने के लिए विज्ञान को यहीं पर अकेले छोड़ शास्त्रों के ज्ञान की ओर अग्रसर
होते हैं |
कर्म की गति –
कर्म की गति को जानने से पहले हमें जड़ता का ज्ञान होना आवश्यक हैं | जड़ता
कहते हैं, जो जिस प्रकार भी गतिमान अथवा स्थिर है, उसी स्थिति में सदैव बने रहना |
स्थान अथवा स्थिति परिवर्तन का प्रतिरोध करना | गति में भी जड़ता है और स्थिर हो
जाना अथवा रूक जाना भी जड़ता है | मनुष्य जीवन में पूर्वजन्म के कारण मिले संस्कार
तथा इस जन्म के कर्मों के मिश्रण से बना स्वभाव हमें कर्म करने को बाध्य करता है |
पूर्वजन्म के कर्मों से बने स्वभाव के अनुसार हम कर्म करें और फिर उन कर्मों में
आसक्त हो जाएँ, तो यह भी एक प्रकार की जड़ता ही है | इस जड़ता को त्यागने के लिए
आवश्यक है कि हम अपने कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करते हुए अपना स्वभाव भी
बदलें | स्वभाव कर्मों से बनता है और कर्म स्वभाव के अनुसार होते हैं | दोनों एक
दूसरे से गहरे रूप से सम्बंधित हैं | कर्म से स्वभाव और स्वभाव से कर्म, यह एक सतत
चलते रहने वाला चक्र है | अगर हम पूर्वजन्म से विरासत में मिले स्वभाव के अनुसार
ही कर्म करते रहे तो यह जड़ता है क्योंकि स्वभाव के अनुसार कर्म करने को हम विवश है
| इस जड़ता को गति प्रदान करने के लिए कर्म को गति देना आवश्यक है |
हमें अपना स्वभाव बदलने के लिए पूर्व
के स्वभाव को परिवर्तित करना होगा | स्वभाव केवल नए कर्म कर ही बदला जा सकता है और
नए कर्म करने की योग्यता केवल मनुष्य में ही है | विहित्त कर्म करते हुए हम अपना
स्वभाव बदल सकते हैं | धीरे-धीरे कर्मों का स्वरुप बदलते हुए अकर्म की ओर अग्रसर
होना ही वास्तव में कर्मों को गति देना है | कर्मों को गति संगति से भी दी जा सकती
है | कुसंग हमें दुर्गति की ओर ले जाता है जबकि सुसंग हमें सद्गति की ओर | इसीलिए
हमारे पूर्वजों ने सत्संग की विशेष महिमा बताई गयी है | गोस्वामी श्री तुलसीदासजी
ने मानस में कहा है –
गगन चढहि रज पवन प्रसंगा | कीचहिं मिलहि नीच जल संगा || मानस-1/7/9 ||
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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