Tuesday, March 21, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 6

गहना कर्मणो गतिः – 6
           व्यक्ति का स्वभाव, जो कि पूर्वजन्म के संस्कारों और वर्तमान जीवन के कर्मों के मिश्रण से बनता है, व्यक्ति को वह स्वभाव ही अपने अनुसार कर्म करने को विवश कर देता है | वह चाहकर भी कर्मों से पलायन नहीं कर सकता | कर्म न करने का संकल्प भी आपको कर्म करने से नहीं रोक सकता क्योंकि आपके स्वभाव के सामने आपका संकल्प एक दिन यूँ ही धरा रह जायेगा | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति || गीता-3/33 || 
अर्थात सभी प्राणी प्रकृति और स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं | ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने का प्रयास करता है. फिर इसमें कर्म न करने का हठ क्या करेगा ? कर्म करना तो स्वभाव के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत है |
         इस प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण कर्म को स्पष्ट करते हुए कह देते हैं कि कोई व्यक्ति यह कहता है कि ‘मैं यह कर्म तो करूँगा और वह कर्म नहीं करूँगा’ तो उसका इस प्रकार कहना मिथ्या है | कर्म तो स्वभाव के कारण होते हैं और अगर कर्मों का स्वरुप बदलना है तो सर्वप्रथम स्वभाव बदलना होगा | स्वभाव परिवर्तन के लिए अहंकार और मोह आदि विकारों का त्याग करना पड़ता है | स्वभाव को परिवर्तित करना मनुष्य के हाथ में है, कर्म करना अथवा न करना नहीं, कर्म तो पत्येक परिस्थिति में करने ही होंगे | अतः यह स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है कि कर्म से पलायन करना भी अनुचित है और कर्म में आसक्त होना भी अनुचित है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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