Monday, March 20, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 5

गहना कर्मणो गतिः -5
          इसी अंतिम अध्याय में कर्मों को करने की विवशता का अहंकार के बाद दूसरा महत्वपूर्ण कारण मोह को स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि तत् || गीता-18/60 ||
अर्थात हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा |
              इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कर्मों को करने से बचने का दूसरा बड़ा कारण मोह को बताया है | अर्जुन की दृष्टि में परिवारजनों और सगे सम्बन्धियों को मारना अनुचित था | उसके पीछे पारिवारिक मोह ही कारण था | आमजन भी कई कर्मों को ऐसे ही किसी के मोह में फंसकर करना नहीं चाहता और कर्मों से पलायन करने का प्रयास करता है | ऐसे किसी भी पलायन करने का प्रयास उसके अपने स्वभाव के कारण एक दिन निरर्थक हो जाता है और व्यक्ति उसी कर्म को करने के लिए विवश हो जाता है | कर्म करने से भागना असंभव है | इसीलिए हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि कर्मों से भागें नहीं, उनको तो भोगें क्योंकि प्रत्येक कर्म का फल भोगना ही पड़ता है | पूर्वजन्म के कर्मों को भोगने के लिए ही तो स्वभावानुसार कर्म करने पड़ते हैं, तभी तो भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं कि सभी लोग कर्म करने को विवश हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment