Friday, March 24, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 9

गहना कर्मणो गतिः – 9
गति की परिभाषा –
             स्थिति या स्थान परिवर्तन चाहे किसी पिंड का हो अथवा जीव का, सभी गति कहलाती हैं | स्थिति अथवा स्थान परिवर्तन के माप को गति कहा जाता है | स्थिति परिवर्तन में धरातल का अभाव है जबकि स्थान परिवर्तन धरातल पर ही होता है | कर्म की गति में धरातल का अभाव है अतः इस गति को स्थिति परिवर्तन कहा जा सकता है जबकि प्राणी अथवा वस्तु की गति में धरातल का होना आवश्यक है अतः ऐसी गति को स्थान परिवर्तन कहा जाता है | धरातल का अभाव होने के कारण कर्म में अथवा कर्म से हो रही गति का अर्थात कर्म की गति में जो स्थिति परिवर्तन होता है, उसको हम स्पष्टतः देख नहीं सकते | जैसे सभी नक्षत्रों में गति तो होती है परन्तु उस गति में धरातल का अभाव है क्योंकि नक्षत्रों में गति अंतरिक्ष में हो रही है | जिस कारण से नक्षत्रों में हो रहा प्रतिदिन स्थिति परिवर्तन हम पृथ्वी पर बैठकर देख नहीं सकते | हमें वह नक्षत्र एक ही स्थान पर दृष्टिगत होता है और उसकी स्थिति परिवर्तन का अनुमान लगाने में ही हमें कई वर्ष लग जाते हैं | गति भौतिकता का प्रमुख गुण है | ‘भौतिकता के गुण’ का अर्थ यह है कि जिस किसी का भी इस संसार में अस्तित्व है वह या तो स्वयं गतिमान है अथवा उस के भीतर गति हो रही है | किसी कार्य का होना क्रिया कहलाता है | यह क्रिया या तो स्वतः हो सकती है अथवा किसी इच्छा से हो सकती है | स्वतः होने वाली क्रिया भी गति है और प्रत्येक अस्तित्व वाली वस्तुओं और पिंडों में यह सतत होती रहती है | इच्छा से होने वाली क्रिया भी गति ही है और उसको कर्म कहा जाता है | स्वेच्छा से क्रिया करने का अधिकार केवल मनुष्य के पास है | क्रिया और कर्म में एक मूलभूत अंतर है कि क्रिया सदैव अपने निर्धारित नियम के अनुसार स्वतः ही होती है, जब कि कर्म को परिवर्तित किया जा सकता है | कर्म में परिवर्तन को कर्म के स्वरुप में परिवर्तन होना कहा जाता है | क्रियाओं में भी परिवर्तन किया जा सकता है परन्तु किसी भी क्रिया को परिवर्तित करने में वस्तु अथवा प्राणी का कोई योगदान न होकर प्रायः मनुष्य का योगदान ही होता है |
            कर्म की गति इसी स्थिति परिवर्तन के अंतर्गत आती है | गति भौतिकता का प्रमुख गुण है और कर्म भी भौतिक शरीर में इन्द्रियों द्वारा ही संपन्न होते है | परन्तु कर्म के स्वरुप में परिवर्तन आध्यात्मिक स्तर पर होता है, भौतिक स्तर पर नहीं, जबकि पिंड की गति का स्तर भौतिक है | इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि भौतिकता के स्तर से ऊपर उठकर आध्यात्मिकता पर अधिक जोर देते है | अतः आध्यात्मिकता के अनुसार कर्म की गति की व्याख्या विभिन्न पुरानों और उपनिषदों में की गयी है | गति के आध्यात्मिक स्तर को जानने से पहले भौतिकता के स्तर पर ही गति को समझना आवश्यक है | फिर इससे अगले स्तर अर्थात आध्यात्मिकता के स्तर पर जाकर ही कर्मों की गति को समझा जा सकता है | तो आइये | सबसे पहले भौतिक गति को विज्ञान के आधार पर समझें |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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