हम सभी लोहे के समान
है और गुरु चुम्बक के समान है | उनका प्रभाव क्षेत्र हमें अपनी ओर खींचता (Attract) है और हम उनके प्रभाव क्षेत्र में खींचे चले भी
जाते हैं | उसी समय हमारे सांसारिक मोह (Worldly attachments) का बंधन हमें वापिस अपने प्रभाव क्षेत्र में खींच
लाता है | इस प्रकार यह मोह-बंधन हमें गुरु के संपर्क (Contact) में आने से वंचित कर देता है | गुरु और मोह, दोनों
के ही क्षेत्र अपना-अपना प्रभाव दिखाते हैं और हम अपने शारीरिक सुख के वशीभूत होकर
इस मोह-बंधन को तोड़ नहीं पाते हैं | अंततः हम गुरु से आत्म-ज्ञान पाने के स्थान पर
सांसारिक मोह को अधिक महत्त्व दे देते हैं | इस प्रकार हम सांसारिक बंधनों से जीवन
भर मुक्त नहीं हो पाते हैं |
विचारणीय है कि यह सांसारिक बंधन
हमें क्या देता है, जो हम इसमें बंधे रहना ही पसंद करते हैं ? यह बंधन सिवाय दुःख के कुछ भी नहीं दे सकता, यह बात
जब हमारी समझ में आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | जीवन समाप्ति की तरफ और
हम हाथ मलते हुए विवश से नज़र आते हैं | मनुष्य नाम की प्रजाति की ऐसी कई पीढ़ियां
गुजर चुकी है परन्तु आज तक हम सम्हलने के स्थान पर और अधिक फिसलते जा रहे हैं |
हमें यह स्वीकार करना होगा कि सांसारिक बंधन सदैव ही अस्थाई (Temporary) होते हैं और इस बंधन हम स्वयं ही बंधे है, किसी और
ने हमें बांधा नहीं है | अतः हमें ही इन बंधनों को तोड़ना होगा | वास्तव में हम परमात्मा
से जुड़े हैं, संसार से नहीं | परमात्मा से हमारा सम्बन्ध सहज (Natural) और नित्य (Eternal) है जबकि
संसार से सम्बन्ध काल्पनिक (Imaginary) और अनित्य
(Transient) है | इस बात का ज्ञान हमें गुरु ही करवा सकता है |
अतः इस संसार के काल्पनिक बंधन से मुक्त होकर गुरु के पास जाइये, उनका सानिध्य आपको
परमात्मा के द्वार तक अवश्य ही पहुंचा देगा |
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय |
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ||
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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