Sunday, March 19, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 4

गहना कर्मणो गतिः -4
             इस श्लोक (गीता-3/5) से स्पष्ट है कि मनुष्य सदैव ही कर्म करने को विवश है और उसकी विवशता का कारण भी उसके पूर्वजन्म के कर्म हैं जो प्रकृति के गुणों के कारण ही नए जीवन में संस्कार बनकर आते हैं | उन संस्कारों के कारण ही मनुष्य जीवन के प्रारम्भ काल से कर्म करने को प्रवृत होता है | यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अवसादग्रस्त अर्जुन को ज्ञान का प्रारम्भ कर्म के विश्लेषण करने से किया है | कर्म करने की विवशता को भगवान श्री कृष्ण अंतिम अद्ध्याय में भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति || गीता-18/59||
जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय भी मिथ्या है; क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे युद्ध करने को विवश कर देगा |
              इस श्लोक के माध्यम से कर्म न करने का प्रथम कारण भगवान ने स्पष्ट किया है और वह है व्यक्ति का अहंकार | अहंकार कई कारणों से मनुष्य में उत्पन्न हो सकता है | सबसे बड़ा अहंकार है, अपने को प्रत्येक अथवा किसी विशेष क्षेत्र में सर्वोच्च मानना | पद, धन-सम्पति, उच्चकुल और ज्ञान, मान-सम्मान आदि का अहंकार व्यक्ति को कई प्रकार के कर्म न करने को प्रेरित करता है | परन्तु पूर्वजन्म के कर्मों से बना संस्कार और वर्तमान जीवन के कर्मों से बना स्वभाव मनुष्य को उन कर्मों से विमुख नहीं होने देता बल्कि उन्हीं कर्मों को करने को विवश कर ही देता है | अर्जुन को अपने ज्ञानी होने का दंभ था | प्रथम अध्याय में वह युद्ध न करने के पक्ष में अपने ज्ञान को भगवान के सामने विविध प्रकार से व्यक्त करता भी है | वह युद्ध के बाद परिवार, स्त्रियों और पितरों पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन तक करते हैं | इस वर्णन का आधार वह स्वयं के ज्ञान को मानता है, जो उसके अहंकार का एक कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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