Wednesday, March 22, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 7

गहना कर्मणो गतिः – 7
           इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता के प्रारम्भ में ही भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ‘कर्म’ विषय को पूर्ण रूप से स्पष्ट कर दिया था, इसके बावजूद भी वे अंतिम अध्याय में उसी कर्म विषय पर पुनः लौट आते हैं | इसका कारण क्या है ? वास्तव में देखा जाये तो अर्जुन भी कुछ जानने अथवा मानने के स्थान पर करने को अधिक महत्त्व दे रहा है क्योंकि उसे ज्ञान से अधिक विश्वास अपने द्वारा करने पर अर्थात स्वयं के कर्ता होने पर है | इससे स्पष्ट है कि हम सभी लोग जानने और मानने से भी अधिक महत्त्व करने को देते हैं और जब करने से भी उसके अनुरूप फल प्राप्त कर संतुष्ट नहीं होते तो दो ही विकल्प बचते हैं, या तो पुनः जन्म लें अथवा सब कुछ त्यागकर परमात्मा के शरणागत हो जाएँ | पहले विकल्प में जन्म-मरण के चक्र से कभी मुक्त नहीं हो सकते जबकि दूसरा विकल्प हमें इसी जीवन में मुक्त कर सकता है | शरणागति के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है, जो हमें शांति प्रदान कर सके | परन्तु हम बार बार मनुष्य जीवन पाकर भी दूसरे के स्थान पर पहला विकल्प ही चुनते रहते हैं |
       यही कारण है कि गीता ज्ञान के समापन में श्री कृष्ण को आखिर अर्जुन को कहना ही पड़ा कि –“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |” (गीता-18/66) अर्थात सभी धर्मों को अर्थात कर्तव्य कर्मों का त्यागकर मेरी शरण में आ जा | कर्तव्य कर्मों के त्याग से आशय कर्तव्य कर्मों के न करने से नहीं है, कर्मों के पलायन से नहीं है बल्कि कर्मफल को त्यागने से है | उनके कहने का मंतव्य है कि कर्तव्य कर्म करते हुए उनका त्याग मुझमें कर दे | ऐसे कर्मों के त्याग का अर्थ है कि जो भी कर्मों का फल मिलेगा, वह चाहे वह आपके पक्ष में हो अथवा विपक्ष में, सभी के लिए परमात्मा ही उत्तरदायी होंगे क्योंकि आपने सभी कर्म परमात्मा को त्याग कर दिए हैं | इस कर्म-त्याग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि फिर आप बिलकुल भी विचलित नहीं होंगे और आपके भीतर किसी प्रकार का अहंकार भाव अथवा अपराध बोध पैदा नहीं हो सकता | साथ ही साथ कर्मों के प्रति आसक्ति और कर्तापन भी पैदा नहीं होगा | स्वयं में कर्तापन का न होना आपको कभी मोहग्रस्त भी नहीं होने देगा |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment