ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् -11
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
विहाय
कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृह |
निर्ममो
निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति || गीता-2/50 ||
अर्थात जो पुरुष
सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होकर विचरण
करता है, केवल वही शांति को प्राप्त होता है |
इस श्लोक
में भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं कि स्पृहा अर्थात महत्वकांक्षा (Ambitions)
व्यक्ति की जब बहुत अधिक हो जाती है, तब
कामनाएं (Desires) पैदा
होती है और कामनाओं के पूरा होने पर अहंकार (Ego)
पैदा होता है | यही अहंकार पुनः अधिक
महत्वकांक्षा पैदा करता है और नई कामनाओं के जन्म का आधार बनता है | इस प्रकार यह
अटूट दुष्चक्र (Vicious cycle) चलता
रहता है | इस चक्र को तोड़ने के लिए ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होना
आवश्यक है |
ममता, स्पृहा और अहंकार के मूल में
सदैव विभिन्न प्रकार की कामनाएं ही रहती है, जो मन को नियंत्रण में न रख पाने के
कारण बार-बार जन्म लेती रहती है | इन कामनाओं को उठने से रोकना ही जीवन को परम
शांति उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक है |
अब प्रश्न उठता है कि कामनाएं पैदा ही क्यों होती है ? मनुष्य के जीवन में कामनाएं पैदा होने के दो प्रमुख कारण है – प्रथम कारण है स्वयं के लिए सुख की चाह रखना और दूसरा महत्वपूर्ण कारण है – लोभ, जितना उपलब्ध है, उसमे कुछ और अधिक जोड़ लेने की भावना | ये दो ही ऐसे कारण है, जो मनुष्य में कामनाओं का अंत नहीं होने देते | कामनाएं व्यक्ति को शांति प्राप्त करने से वंचित करती है | अगर कामनाओं को रोक दिया जाये, तो व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो सकता है | अशांत जीवन के मूल में स्वयं के सुख की चाह और लोभ ही रहते हैं |
अब प्रश्न उठता है कि कामनाएं पैदा ही क्यों होती है ? मनुष्य के जीवन में कामनाएं पैदा होने के दो प्रमुख कारण है – प्रथम कारण है स्वयं के लिए सुख की चाह रखना और दूसरा महत्वपूर्ण कारण है – लोभ, जितना उपलब्ध है, उसमे कुछ और अधिक जोड़ लेने की भावना | ये दो ही ऐसे कारण है, जो मनुष्य में कामनाओं का अंत नहीं होने देते | कामनाएं व्यक्ति को शांति प्राप्त करने से वंचित करती है | अगर कामनाओं को रोक दिया जाये, तो व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो सकता है | अशांत जीवन के मूल में स्वयं के सुख की चाह और लोभ ही रहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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