ज्ञानं
लब्ध्वा परां शांतिम् – 12
स्वामी शिवानन्द अपनी पुस्तक ‘मन,
रहस्य और निग्रह’ में कहते हैं कि मन कामनाओं के द्वारा बड़ा अनर्थ करता है | जब
कोई कामना होती है, तब आप सोचते हैं कि इसकी प्राप्ति से आपको पूर्ण सुख मिल जायेगा
| आप उसको प्राप्त करने के लिए दिन-रात प्रयास करते हैं | जैसे ही आपको यह सब मिल
जाता है तो थोड़ी सी मिथ्या तुष्टि (Pseudo satiety) होती है | फिर कुछ समय
पश्चात् मन अशांत (Disturbed) हो जाता है और इसे नए
संवेदन (Sensation) की आवश्यकता होती है | जुगुप्सा (Repulsion
or abomination) तथा असंतोष (Dissatisfaction)
का
अनुभव होने लगता है | मन को फिर भोग (Enjoyment) के लिए नए पदार्थ चाहिए |
इसी कारण से मनीषियों (Intellectuals) ने इस संसार को कल्पना
मात्र (Imaginary) कहा है | जहाँ संतुष्टि का अभाव है, वह कल्पना से अधिक
कुछ कैसे हो सकता है ? असंतुष्ट होना ही अशांति (Discomfort)
को
निमंत्रित करना है | परम शांति (Ultimate peace) तो संतुष्टि ही प्रदान करती
है |
शांति (Peace)
और
अशांति (Discomfort), दो शब्द हैं, जो हमारे जीवन को सबसे अधिक प्रभावित
करते हैं | हम जानते हैं कि इस संसार में जीवन में शांति किसी के पास भी नहीं है |
शांत जीवन ही स्वर्ग है और अशांत जीवन नरक | प्रत्येक मनुष्य स्वर्ग में रहना
चाहता है, नरक में रहना किसी को भी पसंद नहीं है | स्वर्ग को प्राप्त करने के लिए
वह सब कुछ त्यागना पड़ता है, जिसे आप गलती से स्वर्ग प्राप्त करने के लिए आवश्यक
समझ रहे हैं | शांति से जीने के लिए हर कोई सुख चाहता है, लेकिन केवल स्वयं के लिए
शारीरिक सुख | शारीरिक सुख कभी भी शांति प्रदान नहीं कर सकता | शरीर भौतिक पदार्थ
है और एक भौतिक पदार्थ को दूसरे भौतिक पदार्थ से मिलाने पर केवल क्रियाएं मिल सकती
हैं, जो मात्र सुख का आभास देती है, वास्तव में कोई भी क्रिया सुख दे ही नहीं सकती
| क्रिया (Action) के सुख न देने के पीछे कारण
है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया (Reaction) अवश्य होती है | जिस क्रिया
से आपको व आपके शरीर को सुख का अनुभव होता है, उसकी प्रतिक्रिया में उतनी ही
मात्रा में आपको दुःख भी झेलना पड़ेगा | इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा है कि
जीवन में कभी भी भौतिक पदार्थों से सुख प्राप्त नहीं हो सकता, और हम है कि भौतिक
सुख सुविधाओं को अपने जीवन का सुख, शांति तथा स्वर्ग मान बैठे हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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