Saturday, May 31, 2014

भावप्रधान प्रार्थना |

                                  भाव आपके मन में तभी पैदा हो सकते हैं जब आपकी कथनी और करनी समान हो । अगर हमारे मुंह से जो शब्द निकल रहे है उनमे और मन में उठ रहे विचारों में अंतर हो तो उस बोली जा रही प्रार्थना का कोई मतलब नहीं रहता । प्रार्थना तभी सार्थक हो सकती है जब आपके तन का सामंजस्य आपके मन के साथ हो । आज इस भौतिक संसार में व्यक्ति इतना व्यस्त हो गया है कि उसे एक काम को पूरा करने से पहले ही दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की मन में आने लगती है । विभिन्न कार्यों  के बोझ से वह इतना त्रस्त है कि एक काम को करते वक्त ही वह किसी दूसरे कार्य के बारे में सोचता रहता है । इस कारण से वह किसी भी एक कार्य को करते हुए उसमे पूर्णता नहीं ला सकता । किसी भी कार्य को करते हुए उसके उद्देश्य से वह कोसों दूर ही रहता है । अपनी असफलता के लिए वह कभी किसी को ,कभी भाग्य को और यहाँ तक कि कभी कभी ईश्वर तक को दोषी ठहरा देता है । क्या उसका ऐसा मानना उचित है ?
                              व्यक्ति की कामनाएं और इच्छाएं इतना विस्तार पा चुकी है और आगे बढती ही जा रही है । ऐसे में उसके जीवन में संतुष्टि की कल्पना करना मृग मरीचिका ही है ।जब व्यक्ति के मन में इन के कारण इतनी उठापठक चल रही हो तो ऐसे में भावना के लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है ? जब तक मन में भावना का बीज अंकुरित नहीं होगा,व्यक्ति शांति के लिए तडपता रहेगा । हमारे मन में अच्छी भावनाएं जन्म ले,हम अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों से सफलता के सोपान चढते रहें इसके लिए आवश्यक है कि हमारी आकांक्षाये इस तन को लेकर न हो,इस मन को संतुष्ट करने के लिए न हो,इस धन को येन केन प्रकारेण अर्जित करना ही हमारे जीवन का उद्देश्य न बने । तभी हम भाव प्रधान हो सकते हैं । किसी को दुखी देखकर अगर आप विचलित नहीं होते तो आप भाव शून्य हैं । अगर आप किसी बच्चे को अकेले में रोता हुआ देखें और आप उसके पास जाकर स्नेहिल हाथ उसके सिर पर नहीं रख सकते तो आप भाव शून्य है ।
                          आप भाव प्रधान कैसे हो सकते हैं ?भाव प्रधान होना बड़ा ही आसान है |जब मन से केवल आप स्वयं के बारे में सोचना बंद कर देंगे और आपकी तरह ही सबको देखने लगोगे,आपमें भावना का अंकुर स्फुटित हो जायेगा |अपने पराये का भेद ही व्यक्ति को भावनाशून्य बना देता है |फिर ऐसा व्यक्ति केवल स्वार्थ पूर्ति में ही लगा रहता है |इसी स्वार्थ के कारण वह परमात्मा से प्रार्थना करते समय भी मन ही मन अपनी स्वार्थ पूर्ति की सोचता रहता है | ऐसी प्रार्थना फिर स्वीकार करने योग्य नहीं रहती |    
                        मन को भावना प्रधान बना ले आपकी परमात्मा से की जा रही प्रार्थना भी भाव प्रधान हो जाएगी । तब आपकी आवाज और मन की आवाज एक हो जाएगी । जो कुछ भी आप मुंह से बोलेंगे वही शब्द आपके भीतर भी होंगे । दोनों के बीच किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होगा । आपकी भाव प्रधान प्रार्थना ही परमात्मा तक पहुँच सकती है ।
                                                      || हरिः शरणम् ||

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