Saturday, May 10, 2014

सत्य - असत्य | -१२

                 केवल आँखें और त्वचा की संवेदी प्रकृति ही आपकी मनोदशा प्रतिबिंबित नहीं करती बल्कि समस्त पांचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ भी ऐसा ही है । आपकी जीभ स्वाद का ज्ञान करने वाली एक इन्द्रिय है । उन पर स्वाद का ज्ञान कराने वाली स्वाद कोशिकाएं या स्वाद कलियाँ होती है । साधारण परिस्थितियों में स्वाद का ज्ञान एक दम सटीक होता है । भौतिक रूप से जब किसी रसायन के प्रभाव से या किसी अत्यधिक ठन्डे या अत्यधिक गर्म तरल पदार्थ के खाने के कारण इन स्वाद कोशिकाओं को क्षति पहुंचती है । इस क्षति के कारण अस्थाई तौर पर कुछ समय के लिए स्वाद के ज्ञान में परिवर्तन होना संभव है ,अन्यथा साधारण अवस्था में यह इन्द्रिय सही और सटीक कार्य करती रहती है । जब मनुष्य की मनोदशा अच्छी नहीं होती तब ऐसी परिस्थितियों बन जाती है कि जीभ से लिया जाने वाला स्वाद एक दम से गायब हो जाता है । ऐसा नहीं है कि स्वाद का उल्टा ज्ञान होने लगता हो ,मीठा पदार्थ खारा लगने लगता हो बल्कि स्वाद का अनुभव होना ही समाप्त हो जाता है । स्वाद का ज्ञान कराने वाली ज्ञानेन्द्रिय जीभ अवश्य है परन्तु इसकी भूमिका मात्र मस्तिष्क तक स्वाद का संकेत भेजना ही है । स्वाद का अनुभव करना मस्तिष्क का कार्य है न कि जीभ का । और यह ज्ञान मस्तिष्क तभी कर पाता है जबकि आपकी मानसिक अवस्था सामान्य हो । स्वाद आने या न आने से सत्य का कोई सम्बन्ध नहीं है । स्वाद जैसा भी हो वही सत्य है ।
                 इसी प्रकार आपकी घ्राण शक्ति भी परिस्थितियों के अनुसार  बदलती रहती है । एक बार एक राज्य की राजकुमारी अपने ही राज्य के किसी गाँव से गुजर रही थी । वहां चर्मकार रहते थे । वे एक घर में गयी । चमड़े से आ रही बदबू उससे सहन नहीं हो रही थी । उसने चर्मकार से कहा-"अगर मैं इस घर में रहूँ तो यह बदबू एक सप्ताह में मिटा दूँ । आप लोग सफाई नहीं रखते ,इस कारण से यह बदबू आती है ।"चर्मकार ने उसे ऐसा ही करने को कह दिया । राजकुमारी एक सप्ताह के लिए वहीँ रूक गयी । एक सप्ताह बाद उसने चर्मकार से कहा कि देखो,सारी  बदबू गायब हो गयी न ?चर्मकार ने कहा-"हमें तो पहले भी बदबू का एहसास नहीं होता था । हम तो इसको सहन करने के अभ्यस्त थे । आप भी एक सप्ताह में इस बदबू की अभ्यस्त हो गयी हो ।बदबू तो पहले जैसी ही है,उसमे कोई अंतर नहीं आया है ।"कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति जब किसी का भी अभ्यस्त हो जाता है तब उसे वही सत्य प्रतीत होने लगता है । बदबू आना और न आना सब समय और परिस्थिति के अनुसार होता है । सत्य दोनों ही है -पहला बदबू का सदैव वहां उपस्थित रहना और दूसरा वहां रहने वालों का बदबू के प्रति अभ्यस्त हो जाना ।
                       पांचवीं और अंतिम ज्ञानेन्द्रिय के बारे में भी यही कहा जा सकता है । कान  भौतिक रूप से उपस्थित अवश्य  होते है परन्तु सुनाई वही देता है जो हम सुनना चाहते हैं ।  आपकी मानसिक स्थिति ही इसके लिए उत्तरदाई है । आप किसी भीड़भाड़ वाले बाजार से गुज़र रहे होते हैं । वहां आपको ही क्यी,किसी को भी उस चिल्लपों  में कुछ भी सुनाई नहीं देता । फिर भी शाम तक करोड़ों और अरबों रुपयों का वहां व्यापार होता है । आप जानना चाहते हैं न ,ऐसा कैसे हो सकता है ?बाजार में सभी की मनोदशा व्यापार की होती है ,चाहे कोई कुछ बेचना चाहता हो या खरीदना । ऐसे बाजार में एक संत पुरुष को,एक आध्यात्मिक पुरुष को हो सकता है कुछ भी सुनाई न दे,परन्तु व्यापारी को सब कुछ स्पष्ट सुनाई देता है । इसी प्रकार एक व्यापारी को सत्संग या प्रवचन के दौरान नींद आ सकती है । सब कुछ व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर करता है ।
                     सभी परिस्थितियों में सत्य की उपस्थिति है,असत्य किसी भी स्थान पर नहीं है । सब परिस्थिति,काल और स्थान का प्रभाव है जो व्यक्ति की मानसिक दशा को परिवर्तित कर देता है ,जिसके कारण ही हमें असत्य सत्य और सत्य असत्य नज़र आता है परन्तु वास्तविकता यह है कि यहाँ सब ओर  सत्य ही है ,असत्य का कोई भी स्थान नहीं है ।
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् ||         

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