Tuesday, May 13, 2014

सत्य - असत्य |-१५

                               सत असत ,सत्य असत्य के बारे मे इतनी भ्रांतियां पैदा हो गई है कि सही रूप से इनको पहचानना मुश्किल ही नहीं ,लगभग असम्भव सा ही हो गया है ।ज्यादा दिग्भ्रमित करने का कार्य किया है आज के कथित उपदेशकों ने । सत्य और असत्य से दूर किसी नई बात को ही इनके नाम से प्रस्तुत किया जा रहा है । आज इस दिशा में मार्गदर्शक का कार्य कौन अपने कंधो पर ले,यही प्रश्न सबके सामने खडा है । जब समस्त लोग अपने अपने तरीके से और अपने हानि-लाभ को देखते हुये शब्दों की व्याख्या करने लग जाते है, तब यह प्रवचन मार्गदर्शन के स्थान पर एक तरह का व्यापार हो जाता है । ऐसे समय में एक जिज्ञासु के लिये शास्त्रों के अध्ययन के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता है । शास्त्रों के निरंतर अध्ययन करने से समस्त भ्रांतियां दूर हो जाती है और सत्य के प्रकाश से मन आलोकित हो जाता है ।
                             श्रीमद्भागवत गीता समस्त शास्त्रों का सार है । इसके अध्ययन से व्यक्ति की समस्त भ्रांतियां दूर हो जाती है ।गीता में सभी भ्रांतियों का निवारण तथ्यपरक तऱीके से किया गया है । गीता में किये गए विश्लेषण को पढ़ने से कई बार एक भ्रम की स्थिति पैदा अवश्य हो जाती है । परन्तु यह भ्रम की स्थिति भी व्यक्ति द्वारा गलत रूप से व्याख्या करने से ही पैदा होती है । अतः आवश्यकता है कि पर्याप्त धैर्य रखते हुये गीता की बातों का अध्ययन और मनन किया जाए।
                           सत और असत  को गीता मे भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि-
                                तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्वाम्युत्सृजामि च ।
                                अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ गीता ९/१९ ॥
अर्थात,मैं ही सूर्य रूप में तपता हूँ,वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ । हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत - असत भी मैं ही हूँ । 
                        यहाँ भगवान श्री कृष्ण का यही कहना है कि संसार में जो कुछ भी है,वह सब मैं ही हूँ । भगवान श्रीकृष्ण परमब्रह्म परमात्मा का ही एक व्यक्त रूप है अतः वे असत हो ही नहीं सकते । वे सत ही हैं । संसार में जो भी है वह परमात्मा के कारण या परमात्मा ही है ,इस कारण से यहाँ पर सब कुछ सत्य ही हुआ । असत्य होने का प्रश्न ही नहीं है ।
                      सत और असत  मैँ ही  हूँ ,इसका सीधा सा अर्थ एक ही  निकलता है । वे अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव  जाति को यही सन्देश देना चाहते हैं कि संसार मे जो भी सत्य और असत्य नज़र आ रहा है ,वह सब मैं ही हूँ अर्थात सब मेरे कारण  ही है । अतः किसी को भी इन शब्दों के जाल मे नहीं उलझना चहिये ।न ही इस भ्रम में पड़ना चाहिए कि सत्य क्या है और असत्य क्या है?इन सबको मेरा ही रूप और मेरी ही लीला समझें । यही सत्य है । इस सत्य के अतिरिक्त संसार मे कुछ भी नहीं है ।
क्रमशः
                                        || हरिः शरणम् || 

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