"गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया " यह मशहूर कहावतों में से एक कहावत है । इसका अर्थ यह है कि जिस गुरु से शिक्षा प्राप्त कर शिष्य महारत हासिल करता है,उस महारत में ,उस क्षेत्र में वह अपने गुरु से दो कदम आगे होता है । गुरु से शिष्य अग्रणी हो जाये तो उस गुरु का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है । इसी प्रकार पुत्र ,अपने पिता से प्रशिक्षण पाकर उस क्षेत्र में अगर नए मापदंड स्थापित करता है तो पिता का सीना भी गर्व से फूल जाता है । गुरु और पिता को अपने शिष्य और पुत्र से साधारण परिस्थितियों में हार जाने पर भी गर्व महसूस होत्ता है । परन्तु यह सोचना कि प्रत्येक परिस्थिति में गुरु और पिता को हार ही मिलनी है, भी गलत होगा । "गुरु गुड़ और चेला शक्कर" यह नियम केवल सौहार्दपूर्ण प्रतिस्पर्धा में ही सत्य साबित होता है ,महाभारत जैसे विशाल युद्ध जैसी परिस्थिति में नहीं । अगर यह कहावत प्रत्येक परिस्थिति में समान रूप से लागू होती तो श्रीकृष्ण को इतना जटिल और निर्दयी निर्णय नहीं लेना पड़ता । जटिल मैं इस लिए कहूँगा कि एक परम ब्रह्म का साक्षात् व्यक्त रूप अपने नियमों को ताक पर कैसे रख सकता है तथा इस निर्णय को मैं निर्दयी इस लिए कहूँगा कि सबको पता था कि अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनकर आचार्य अपने हथियार डालकर निहत्थे हो जायेंगे । निहत्थे को मारना निर्दयता की पराकाष्ठा ही होती है ।द्रोणाचार्य किसी भी प्रकार अर्जुन से युद्ध कौशल मे कम नहीं थे ,अतः युद्ध की परिस्थिति मे यह कहावत निःसंदेह गलत ही साबित होती,अगर तब श्रीकृष्ण किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं निभाते ।
अब यह समझे कि आचार्य द्रोंण जैसे विशाल व्यक्तित्व ने बिना सोचे समझे यह कैसे स्वीकार कर लिया कि उनका पुत्र अश्वत्थामा इस युद्ध में मारा गया है ? ठीक है ,युधिष्ठिर सत्यवादी थे परन्तु युद्ध एक ऐसी परिस्थिति पैदा कर देता है जहाँ कभी भी असत्य , सत्य का चोला पहनकर सामने आ सकता है । फिर द्रोणाचार्य तो युद्ध कला में पारंगत थे । उन्होंने अपने दुश्मन का इतना जल्दी विश्वास कैसे कर लिया कि वह सत्य वचन ही कह रहा है ?
इस प्रश्न का उत्तर भी वही है जो प्रारंभ में बताया गया है । द्रोणाचार्य का पुत्र मोह बहुत ही अधिक था । यह आसक्ति ही उनके सोचने और समझने की क्षमता पर प्रहार कर बैठी । उन्होंने वास्तव में युधिष्ठिर के वाक्य को पूर्ण रूप से सुना ही नहीं,क्योंकि उनकी बुद्धि पुत्र मोह के अधीन थी । उनके लिए अश्वत्थामा का अर्थ मात्र उनका पुत्र होना ही था । उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि अश्वत्थामा नाम एक हाथी का भी हो सकता है । अश्वत्थामा मारा गया यही उनको सुनाई दिया । इतना सुनने के बाद उनकी श्रवण क्षमता ने जवाब दे दिया । हालाँकि युधिष्ठिर ने आगे यह भी बोला था कि नर नहीं बल्कि हाथी । बुद्धि पर हावी आसक्ति ने इस प्रकार वाक्य के दूसरे अंश को सुनने से द्रोणाचार्य को वंचित कर दिया ।
अगर द्रोणाचार्य को यही वाक्य युद्ध के मैदान की परिस्थिति के अतिरिक्त अन्य किसी भी परिस्थिति में कहा जाता और यह कथन चाहे युधिष्ठिर का ही होता तो भी वे इस पर सहसा विश्वास नहीं कर पाते । लेकिन श्रीकृष्ण तो परम ब्रह्म थे,उनको तो सारा खेल खेलना आता है । वह अपनी मर्ज़ी से इस खेल के द्वारा किसी को भी और कभी भी नचा सकता था ,और सम्पूर्ण महाभारत युद्ध में उसने किया भी यही । सत्य को कभी भी असत्य कहला देता और कभी असत्य को सत्य । वह तो केवल परिस्थितियां निर्मित करता रहा और समस्त खेल निर्बाध गति से चलता रहा । वास्तव में देखा जाये तो सारा खेल सत्य ही था ,असत्य और सत्य तो परिस्थितियों के अनुसार एक दूसरे के रूप में मरीचिका के रूप में आते रहे । मरीचिका अर्थात जल के आभास (सत्य) को ही जल (असत्य) मान लेना । जैसे कि आचार्य द्रोण ने किसी अन्य अश्वत्थामा की मृत्यु को अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु होने मान लिया था । यह सब होता है आसक्ति के कारण । जैसे प्यासा पशु जल में आसक्त होने के कारण मरीचिका को ही जल का श्रोत होना मान लेता है । आचार्य द्रोण के सामने युद्ध की परिस्थिति थी और पशु के सामने प्यास की ।इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अलग अलग परिस्थितियों मे सत्य को अलग अलग तरीक़े से समझा जाता है ।अलग अलग समझने के बावजूद भी सत्य सदैव सत्य ही रहता है,असत्य नहीं हो जाता ।
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
अब यह समझे कि आचार्य द्रोंण जैसे विशाल व्यक्तित्व ने बिना सोचे समझे यह कैसे स्वीकार कर लिया कि उनका पुत्र अश्वत्थामा इस युद्ध में मारा गया है ? ठीक है ,युधिष्ठिर सत्यवादी थे परन्तु युद्ध एक ऐसी परिस्थिति पैदा कर देता है जहाँ कभी भी असत्य , सत्य का चोला पहनकर सामने आ सकता है । फिर द्रोणाचार्य तो युद्ध कला में पारंगत थे । उन्होंने अपने दुश्मन का इतना जल्दी विश्वास कैसे कर लिया कि वह सत्य वचन ही कह रहा है ?
इस प्रश्न का उत्तर भी वही है जो प्रारंभ में बताया गया है । द्रोणाचार्य का पुत्र मोह बहुत ही अधिक था । यह आसक्ति ही उनके सोचने और समझने की क्षमता पर प्रहार कर बैठी । उन्होंने वास्तव में युधिष्ठिर के वाक्य को पूर्ण रूप से सुना ही नहीं,क्योंकि उनकी बुद्धि पुत्र मोह के अधीन थी । उनके लिए अश्वत्थामा का अर्थ मात्र उनका पुत्र होना ही था । उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि अश्वत्थामा नाम एक हाथी का भी हो सकता है । अश्वत्थामा मारा गया यही उनको सुनाई दिया । इतना सुनने के बाद उनकी श्रवण क्षमता ने जवाब दे दिया । हालाँकि युधिष्ठिर ने आगे यह भी बोला था कि नर नहीं बल्कि हाथी । बुद्धि पर हावी आसक्ति ने इस प्रकार वाक्य के दूसरे अंश को सुनने से द्रोणाचार्य को वंचित कर दिया ।
अगर द्रोणाचार्य को यही वाक्य युद्ध के मैदान की परिस्थिति के अतिरिक्त अन्य किसी भी परिस्थिति में कहा जाता और यह कथन चाहे युधिष्ठिर का ही होता तो भी वे इस पर सहसा विश्वास नहीं कर पाते । लेकिन श्रीकृष्ण तो परम ब्रह्म थे,उनको तो सारा खेल खेलना आता है । वह अपनी मर्ज़ी से इस खेल के द्वारा किसी को भी और कभी भी नचा सकता था ,और सम्पूर्ण महाभारत युद्ध में उसने किया भी यही । सत्य को कभी भी असत्य कहला देता और कभी असत्य को सत्य । वह तो केवल परिस्थितियां निर्मित करता रहा और समस्त खेल निर्बाध गति से चलता रहा । वास्तव में देखा जाये तो सारा खेल सत्य ही था ,असत्य और सत्य तो परिस्थितियों के अनुसार एक दूसरे के रूप में मरीचिका के रूप में आते रहे । मरीचिका अर्थात जल के आभास (सत्य) को ही जल (असत्य) मान लेना । जैसे कि आचार्य द्रोण ने किसी अन्य अश्वत्थामा की मृत्यु को अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु होने मान लिया था । यह सब होता है आसक्ति के कारण । जैसे प्यासा पशु जल में आसक्त होने के कारण मरीचिका को ही जल का श्रोत होना मान लेता है । आचार्य द्रोण के सामने युद्ध की परिस्थिति थी और पशु के सामने प्यास की ।इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अलग अलग परिस्थितियों मे सत्य को अलग अलग तरीक़े से समझा जाता है ।अलग अलग समझने के बावजूद भी सत्य सदैव सत्य ही रहता है,असत्य नहीं हो जाता ।
क्रमशः
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