Sunday, May 11, 2014

सत्य - असत्य |-१३

                                 सत्यं ब्रूयात्  प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।
                                  प्रियं  च  नानृतं  ब्रूयात्  एष  धर्मः  सनातनः ॥ मनुस्मृति ४/१३८ ॥
                         अर्थात् सत्य बोलें,प्रिय बोलें परन्तु न तो अप्रिय सत्य बोलें और न ही प्रिय असत्य बोलें ।
                                                मनुस्मृति का यह श्लोक आम व्यक्ति के जीवन के लिये बड़ा ही उपयोगी है । आपके जीवन में सत्य या असत्य जिस को भी आप महत्वपूर्ण मानते हैं उसके साथ किस तरीके का व्यवहार होना चहिये ,यह श्लोक उसे एकदम स्पष्ट करता है । एक दार्शनिक और आध्यात्मिक व्यक्ति के अनुसार संसार में जो भी दृष्टिगोचर हो रहा है अथवा जो अभी भी अदृशय है और कभी भी दृष्टिगोचर हो सकता है ,सब सत्य है । परन्तु एक सांसारिक व्यक्ति के अनुसार सत्य और असत्य दो अलग अलग हैं । सांसारिकता के अनुसार असत्य और सत्य दोनों को ही अगर सही मान लिया  जाये तो व्यावहारिकता मे इन दोनोँ का कैसे उपयोग किया जाए,इसका मार्गदर्शन यह श्लोक करता है ।
                                                यहाँ यह श्लोक यही कहता है कि व्यावहारिकता की दृष्टि से प्रिय असत्य तो कभी भी नहीं बोलना चाहिए । प्रिय असत्य बोलना तो अप्रिय सत्य बोलने से भी अधिक घातक होता है ।आज इस संसार में चारों ओर या तो अप्रिय सत्य बोला जा रहा है या फ़िर प्रिय असत्य ।यह श्लोक उन लोगों का मार्गदर्शन करता है जो  या तो सत्य बोलने की कसम खाकर बैठे हैं या फ़िर उन लोगों को इससे शिक्षा लेनी चाहिए जो सदैव ही प्रिय बोलने के चक्कर में असत्य को ही उच्चारित किये जा रहे हैं । सत्य जब किसी की जिंदगी पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दे तो फ़िर वह प्रिय सत्य कैसे हो सकता है ?  इसी प्रकार जब कोई  प्रिय लगने  वाली असत्य बात किसी की जिन्दगी को तबाही की कगार पर पहुंचा सकती है तो फ़िर ऐसे अप्रिय सत्य और प्रिय सत्य को सदैव ही कहने से बचना चाहिए । ऐसी स्थिति में मौन रह जाना ही सबसे उपयुक्त विकल्प होता है ।
क्रमशः
                                     || हरिः शरणम् ||  

No comments:

Post a Comment