Monday, May 19, 2014

सत्य -असत्य |-२१

                                  परम-ब्रह्म परमात्मा की तीन सत प्रकृति है -अस्ति,भाती और प्रियम् । तीसरी सत प्रकृति प्रियम् है अर्थात परमात्मा स्वयं प्रिय है और परमात्मा को सभी प्रिय है । परमात्मा स्वयं प्रिय है क्योंकि परमात्मा ऐसे किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होते है और न ही ऐसा कोई कर्म करते है जिसके कारण किसी के मन में उनके प्रति द्वेष भाव पैदा हो । संसार में प्रिय होना और प्रियता का सबके साथ व्यवहार करना एक दूसरे के पूरक है । अगर आप सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं तो आप सबको प्रिय लगोगे । प्रेमपूर्ण व्यवहार का अर्थ यह कदापि नहीं है कि किसी के नाराज़ हो जाने के भय से हम झूठा प्रेम प्रदर्शन करें।
                                   परमात्मा का व्यवहार सबके प्रति समता का व्यवहार है । समता का व्यवहार ही प्रिय व्यवहार है जो व्यक्ति को सबके लिए प्रिय बना सकता है । संसार में समता का पालन करना सबसे मुश्किल कार्य है । इसी लिए कोई व्यक्ति कुछ लोगों के लिए अप्रिय हो सकता है ,भले ही ज्यादातर लोगों में उसकी छवि एक प्रिय व्यक्ति की हो । समता पूर्ण व्यवहार ही व्यक्ति को संसार से अलग करते हुए परमात्मा की तरफ ले जा सकता है । आज के युग में समता पूर्वक व्यवहार देखने को मिलना असंभव है,इसी कारण से प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति को अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ता है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
                                   अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
                                   सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ गीता १२/१६ ॥
अर्थात,जो पुरुष आकांक्षा से रहित,बहार-भीतर से शुद्ध,चतुर,पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है,वह सब आरंभो का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
                                उपरोक्त सभी लक्षण सरलता की पहचान है । सरल व्यक्ति ही एक मात्र आदर्श और सत्य व्यक्ति हो सकता है । परन्तु इस मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यहाँ प्रत्येक व्यक्ति सरल होना तो चाहता है परन्तु हो नहीं पाता । इस भौतिक संसार में सरल होना ही सबसे  कठिन है ।  जिस दिन जीवन मे सरलता का पदार्पण होता है,सत्य आपके सम्मुख खड़ा होता है । संसार में व्याप्त असत्य का पूर्णतया  लोप हो जाता है । इस संसार में जीवन की सरलता ही व्यक्ति को प्रिय बनाती है । आप महान विभूतियों के जीवनकाल को अगर गौर से देखोगें तो पाओगे कि उनके जीवन की सरलता ने ही उन्हे प्रिय बनाया । सरल जीवन प्रेम करता भी  है और प्रेम पाता भी  है । भगवान राम का जीवन अति सरल था,तभी सबके वे प्रिय थे । श्री कृष्ण तो अपने समय मे इतने प्रिय थे कि कहा जाता है कि वृन्दावन की गोपियाँ उनके प्रेम मे इतनी पागल थी कि वे उनका प्रेम पाने के लिये अपने पतियों के आदेश की भी अवहेलना कर देतीं थी । जितने भी परमात्मा के अवतार इस धरा पर हुये हैं वे अपनी सरलता से सबकें प्रिय बने । उस परम-ब्रह्म परमात्मा की यह सत प्रक़ृति ही है ।
                                             संसार में असत से सत की ओर जाना ही सत्य को पाना है । असत्य मात्र सत्य का दृष्टि मे न आ पाना ही है । अन्यथा असत्य तो कहीं है ही नहीं । सत और असत ,दोनों ही परमात्मा की प्रकृति है,दोनोँ ही उसके द्वारा खेले जा रहे खेल है । इस खेल की प्रकृति को जान कर और पहचान कर खेल खेले वही एक आदर्श खिलाडी है। वही  व्यक्ति बता सकता है कि यहाँ इस खेल मे सब सत्य ही है ।  खुद खेल को अपने अनुसार खेलना असत्य है और परमात्मा के अनुसार खेलते रहना ही सत्य है ।
क्रमशः
                                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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