सत्य तो सदैव सत्य ही रहता है,उसे असत्य मान लेना या सत्य को किसी अन्य रूप में समझ लेना इस संसार में लिप्त व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी है । वह जिस स्थिति में अपने अनुकूल उस सत्य को मानता है,वह उसी रूप में उस सत्य को स्वीकार करता है । चाहे आप उसे कितना भी आगाह करदे,वह इस बात को समझ ही नहीं पायेगा कि सत्य का वास्तविक स्वरुप उसके द्वारा स्वीकार किये जा रहे स्वरुप से एक दम भिन्न है । जब तक वह भविष्य में सत्य के वास्तविक स्वरुप को समझ पाता है ,तब तक बड़ी देर हो चुकी होती है । कई कई बार तो वह अपनी सम्पूर्ण जिंदगी में सत्य का वास्तविक स्वरुप समझ भी नहीं पाता । जब तक व्यक्ति अपने जीवन में सत्य के वास्तविक स्वरुप को जान नहीं पायेगा तब तक उसका जीवन आनंदित नहीं हो पायेगा । और बिना आनंद का जीवन पशु जीवन से भिन्न नहीं होता ।
सत्य किसी से उधार नहीं मिलता और न ही ज्ञानी पुरुष आपको घोलकर पिला सकता है । यह तो आपकी प्रवृति पर निर्भर करता है कि आप सत्य के स्वरुप को जानने के लिए कितने लालायित है । व्यक्ति की जिज्ञासु प्रवृति ही उसे सत्य के द्वार तक ले जाती है । सत्य तो हर देश(स्थान),काल (समय ) और परिस्थिति में मौजूद है । हम अपनी सांसारिकता के विकारों में लिप्तता के कारण उसे पहचान और स्वीकार नहीं कर पाते हैं । हम अपनी कमी को सत्य की कमी नहीं बता सकते । सत्य तो सभी प्रकार के विकारों से रहित होता है ।
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह सब कुछ जानते और समझते हुए भी सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता । इसका सबसे बड़ा कारण उसका मन होता है,जो उसे प्रत्येक बार एक दुविधा में डाल देता है । वह आत्मिक रूप से जानता है कि सत्य क्या है? परन्तु उसका मन अगर सत्य को स्वीकार कर ले तो फिर वह सांसारिकता से ऊपर उठ जाता है और उसके कदम आध्यात्मिकता की राह पर आगे बढ़ जाते हैं । परन्तु यह जितना पढने और लिखने में आसान नज़र आता है , वास्तव में उतना आसान है नहीं । मन कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता ,जब तक कि मन पर पूर्ण रूप से नियंत्रण स्थापित न कर लिया जाये । सत्य को स्वीकार करने से सांसारिकता नष्ट हो जाती है औए सांसारिकता को ही मन एक सुख का साधन समझता है । अगर गंभीरता से देखा जाये तो सांसारिकता कोई असत्य नहीं है ,परन्तु मन सत्य को इसीलिए स्वीकार करने से इंकार कर देता है क्योंकि मन का मानना है कि सांसारिकता नष्ट हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा ।
आखिर यह सांसारिकता है क्या? हम सब इस भौतिक संसार में रहते है । इस संसार में रहना कहीं से भी अनुचित नहीं है । परन्तु इस संसार में आसक्त हो जाना , लिप्त हो जाना और संसार के प्रत्येक कार्य का कर्ता बन जाना ही सांसारिकता है । मन इसी सत्य को स्वीकार करने से इंकार करता है । आपको सभी भौतिक सुख सत्य को स्वीकार करने के उपरांत भी यथावत मिलते रहेंगे,इसमे किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए । इस सत्य को स्वीकार करते ही सब ओर सत्य ही सत्य नज़र आएगा । परमात्मा की तरफ जाने का यह प्रथम कदम है ।
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
सत्य किसी से उधार नहीं मिलता और न ही ज्ञानी पुरुष आपको घोलकर पिला सकता है । यह तो आपकी प्रवृति पर निर्भर करता है कि आप सत्य के स्वरुप को जानने के लिए कितने लालायित है । व्यक्ति की जिज्ञासु प्रवृति ही उसे सत्य के द्वार तक ले जाती है । सत्य तो हर देश(स्थान),काल (समय ) और परिस्थिति में मौजूद है । हम अपनी सांसारिकता के विकारों में लिप्तता के कारण उसे पहचान और स्वीकार नहीं कर पाते हैं । हम अपनी कमी को सत्य की कमी नहीं बता सकते । सत्य तो सभी प्रकार के विकारों से रहित होता है ।
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह सब कुछ जानते और समझते हुए भी सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता । इसका सबसे बड़ा कारण उसका मन होता है,जो उसे प्रत्येक बार एक दुविधा में डाल देता है । वह आत्मिक रूप से जानता है कि सत्य क्या है? परन्तु उसका मन अगर सत्य को स्वीकार कर ले तो फिर वह सांसारिकता से ऊपर उठ जाता है और उसके कदम आध्यात्मिकता की राह पर आगे बढ़ जाते हैं । परन्तु यह जितना पढने और लिखने में आसान नज़र आता है , वास्तव में उतना आसान है नहीं । मन कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता ,जब तक कि मन पर पूर्ण रूप से नियंत्रण स्थापित न कर लिया जाये । सत्य को स्वीकार करने से सांसारिकता नष्ट हो जाती है औए सांसारिकता को ही मन एक सुख का साधन समझता है । अगर गंभीरता से देखा जाये तो सांसारिकता कोई असत्य नहीं है ,परन्तु मन सत्य को इसीलिए स्वीकार करने से इंकार कर देता है क्योंकि मन का मानना है कि सांसारिकता नष्ट हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा ।
आखिर यह सांसारिकता है क्या? हम सब इस भौतिक संसार में रहते है । इस संसार में रहना कहीं से भी अनुचित नहीं है । परन्तु इस संसार में आसक्त हो जाना , लिप्त हो जाना और संसार के प्रत्येक कार्य का कर्ता बन जाना ही सांसारिकता है । मन इसी सत्य को स्वीकार करने से इंकार करता है । आपको सभी भौतिक सुख सत्य को स्वीकार करने के उपरांत भी यथावत मिलते रहेंगे,इसमे किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए । इस सत्य को स्वीकार करते ही सब ओर सत्य ही सत्य नज़र आएगा । परमात्मा की तरफ जाने का यह प्रथम कदम है ।
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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