सत्य सदैव के लिए ही सत्य होता है । देश काल और परिस्थितियां भले ही कुछ समय के लिए इसे धूमिल कर दे । सत्य कभी भी छुपा हुआ नहीं रह सकता । एक न एक दिन वह प्रकट होकर ही रहता है । हमने स्थान अर्थात देश और काल यानि समय के अनुसार सत्य को बदलते हुए जाना । आज हम चर्चा करेंगे कि सत्य परिस्थितियों के सापेक्ष किस तरह व्यवहार करता है ।
किसी भी व्यक्ति के द्वारा उच्चारित शब्द उसकी दशा को प्रतिबिंबित करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि उस व्यक्ति के द्वारा कही गई बात को उसकी मानसिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही देखा जाना चाहिए । जो श्रोता इस बात को समझ जाता है ,वही एक अच्छा श्रोता हो सकता है । एक आदर्श श्रोता के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी परिस्थिति को मस्तिष्क से निकाल बाहर करे और केवल वक्ता की बात को ही ध्यान लगाकर सुने । इससे वक्ता की मानसिक स्थिति का निर्धारण वह बड़ी ही आसानी से कर सकता है । प्रायः यह देख गया है कि श्रोता वक्ता की बात सुनने के दौरान ही अपनी मानसिक परिस्थितियों का भी चिन्तन करता रहता है । इस कारण से वह न तो वक्ता की बात को अच्छी तरह समझ सकता है और न ही अपनी मानसिक उलझन का समाधान कर सकता है । सत्य को अच्छी तरह समझने के लिए एक आदर्श श्रोता बनना आवश्यक है ।
व्यक्ति जब स्वयं विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा होता है तब वह वक्ता की आधी अधूरी बात ही सुन पाता है । इस आधी अधूरी सुनी हुई बात से सत्य के बारे में किसी भी बात का निर्णय कर पाना लगभग असंभव हो जाता है । इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण महाभारत काल का है । महाभारत युद्ध अपने चरम पर था । द्रोणाचार्य बड़े ही मन से युद्ध का संचालन कर रहे थे । भगवान श्रीकृष्ण को पांडवों और विजय के बीच द्रोणाचार्य खड़े नज़र आ रहे थे । अंत में श्रीकृष्ण ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया जिसके कारण युद्ध का परिणाम भी बदल गया ।उनका उद्देश्य था कि गुरु द्रोणाचार्य तक किसी भी प्रकार उनके पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार पहुँचाया जाय । इसके लिए श्रीकृष्ण ने पांडवों की सेना में शामिल एक अश्वत्थामा नामक हाथी को मरवा डाला । तभी पांडव सैनिकों ने शोर मचा डाला कि अश्वत्थामा मारा गया । गुरु द्रोणाचार्य को बड़ा दुःख हुआ परन्तु वे इसे सत्य मानने को तैयार नहीं थे । श्रीकृष्ण ने "अश्वत्थामा मारा गया" यह बात कहने के लिए युधिष्ठिर को कहा । युधिष्ठिर यह असत्य कहने को तैयार नहीं हुए । श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को समझाया कि यह असत्य नहीं है ,अश्वत्थामा नामक हाथी तो मारा गया, यही बात तुम अपने आचार्य को बता दो इससे तुम सत्य ही कहोगे और असत्य भाषण से बच जाओगे । अंत में किसी भी प्रकार युधिष्ठिर तैयार हो गए । उन्होंने जोर से कहा-"अश्वत्थामा मारा गया " फिर जरा धीरे से कहा "नर नहीं बल्कि हाथी"। कहा जाता है कि दूसरा अंश युद्ध के शोर में दब गया । अश्वत्थामा की मृत्यु की खबर पाकर आचार्य द्रोंण ने हथियार डाल दिए । इस प्रकार द्रोणाचार्य के हथियार डालते ही युद्ध में विजय का झुकाव पांडवों की ओर हो गया । मौक़ा पाकर द्रोणाचार्य का वध उन्ही के शिष्य द्वारा कर दिया गया ।
महाभारत युद्ध के दौरान घटी यह एक असाधारण घटना थी । इस घटना में सत्य बोलते हुए भी सत्य को छुपा लिया गया था । यह असत्य को सत्य का आवरण लगाकर प्रस्तुत करने का एक बेहतरीन उदाहरण है । यहाँ बोला गया सत्य भी वास्तव में एक असत्य था । यह असत्य भी परिस्थिति अनुसार सत्य में परिवर्तित हो गया गया या यूँ कह सकते हैं कि सत्य में परिवर्तित कर दिया गया। वास्तव में देखा जाये तो बोला सत्य ही गया था परन्तु सत्य बोले जाने का उद्देश्य असत्य था ,युद्ध के नियमों के अनुसार नहीं था । अब हम विचार करेंगे कि परिस्थितियों की इस सत्य असत्य में क्या भूमिका थी?
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
किसी भी व्यक्ति के द्वारा उच्चारित शब्द उसकी दशा को प्रतिबिंबित करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि उस व्यक्ति के द्वारा कही गई बात को उसकी मानसिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही देखा जाना चाहिए । जो श्रोता इस बात को समझ जाता है ,वही एक अच्छा श्रोता हो सकता है । एक आदर्श श्रोता के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी परिस्थिति को मस्तिष्क से निकाल बाहर करे और केवल वक्ता की बात को ही ध्यान लगाकर सुने । इससे वक्ता की मानसिक स्थिति का निर्धारण वह बड़ी ही आसानी से कर सकता है । प्रायः यह देख गया है कि श्रोता वक्ता की बात सुनने के दौरान ही अपनी मानसिक परिस्थितियों का भी चिन्तन करता रहता है । इस कारण से वह न तो वक्ता की बात को अच्छी तरह समझ सकता है और न ही अपनी मानसिक उलझन का समाधान कर सकता है । सत्य को अच्छी तरह समझने के लिए एक आदर्श श्रोता बनना आवश्यक है ।
व्यक्ति जब स्वयं विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा होता है तब वह वक्ता की आधी अधूरी बात ही सुन पाता है । इस आधी अधूरी सुनी हुई बात से सत्य के बारे में किसी भी बात का निर्णय कर पाना लगभग असंभव हो जाता है । इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण महाभारत काल का है । महाभारत युद्ध अपने चरम पर था । द्रोणाचार्य बड़े ही मन से युद्ध का संचालन कर रहे थे । भगवान श्रीकृष्ण को पांडवों और विजय के बीच द्रोणाचार्य खड़े नज़र आ रहे थे । अंत में श्रीकृष्ण ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया जिसके कारण युद्ध का परिणाम भी बदल गया ।उनका उद्देश्य था कि गुरु द्रोणाचार्य तक किसी भी प्रकार उनके पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार पहुँचाया जाय । इसके लिए श्रीकृष्ण ने पांडवों की सेना में शामिल एक अश्वत्थामा नामक हाथी को मरवा डाला । तभी पांडव सैनिकों ने शोर मचा डाला कि अश्वत्थामा मारा गया । गुरु द्रोणाचार्य को बड़ा दुःख हुआ परन्तु वे इसे सत्य मानने को तैयार नहीं थे । श्रीकृष्ण ने "अश्वत्थामा मारा गया" यह बात कहने के लिए युधिष्ठिर को कहा । युधिष्ठिर यह असत्य कहने को तैयार नहीं हुए । श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को समझाया कि यह असत्य नहीं है ,अश्वत्थामा नामक हाथी तो मारा गया, यही बात तुम अपने आचार्य को बता दो इससे तुम सत्य ही कहोगे और असत्य भाषण से बच जाओगे । अंत में किसी भी प्रकार युधिष्ठिर तैयार हो गए । उन्होंने जोर से कहा-"अश्वत्थामा मारा गया " फिर जरा धीरे से कहा "नर नहीं बल्कि हाथी"। कहा जाता है कि दूसरा अंश युद्ध के शोर में दब गया । अश्वत्थामा की मृत्यु की खबर पाकर आचार्य द्रोंण ने हथियार डाल दिए । इस प्रकार द्रोणाचार्य के हथियार डालते ही युद्ध में विजय का झुकाव पांडवों की ओर हो गया । मौक़ा पाकर द्रोणाचार्य का वध उन्ही के शिष्य द्वारा कर दिया गया ।
महाभारत युद्ध के दौरान घटी यह एक असाधारण घटना थी । इस घटना में सत्य बोलते हुए भी सत्य को छुपा लिया गया था । यह असत्य को सत्य का आवरण लगाकर प्रस्तुत करने का एक बेहतरीन उदाहरण है । यहाँ बोला गया सत्य भी वास्तव में एक असत्य था । यह असत्य भी परिस्थिति अनुसार सत्य में परिवर्तित हो गया गया या यूँ कह सकते हैं कि सत्य में परिवर्तित कर दिया गया। वास्तव में देखा जाये तो बोला सत्य ही गया था परन्तु सत्य बोले जाने का उद्देश्य असत्य था ,युद्ध के नियमों के अनुसार नहीं था । अब हम विचार करेंगे कि परिस्थितियों की इस सत्य असत्य में क्या भूमिका थी?
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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