कारण दृष्टि ही मुक्ति का मार्ग है । कारण दृष्टि आपको अपने अस्तित्व के ,आपके स्वयं के होने के ,भ्रम से मुक्त कर देती है । जिस समय आप अपने होने के भ्रम से स्वतंत्र हो जाते हैं तभी आपका मृत्यु से भी भय जाता रहता है । मृत्यु से व्यक्ति इतना अधिक भयभीत रहने लगा है कि उसके जीवन से आनंद तिरोहित हो चूका है । इस प्रकार मर मर कर जीने से तो बेहतर है कि मृत्यु समय से पूर्व आ जाये । लेकिन मृत्यु का आगमन भी आपको पुनर्जन्म से मुक्त नहीं कर सकता । जब आप बार बार जन्म लेते ही हैं तब फिर मृत्यु से भी भय क्यों ? इसका भी कारण वही है -दृष्टि का । दृष्टि का अंतर ही आपको सुख-दुःख की ओर धकेलता है ,आनंद से सदैव दूर रखता है। आपका जीवन आनंद उठाने के लिए है,सुख-दुःख झेलने के लिए नहीं ।
स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि आपको सुख-दुःख और जन्म-मरण के दुष्चक्र से बाहर ही नहीं आने देगी । इस जीवन का आनंद उठाना तो आपकी कल्पना से भी बाहर होगा । जीवन परमात्मा ने आनंदित होने के लिए दिया है,न कि सुख-दुःख झेलने के लिए । झेलना मैं इसलिए कहता हूँ कि व्यक्ति न तो सुख पाकर संतुष्ट होता है और न ही दुःख के आगमन का आह्वान करता है । सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह है । सुख के साथ सदैव ही दुःख जुड़ा होता है । इसका ज्ञान हममें से प्रत्येक को है । इसी कारण से हम लोग जब सुख आता है तब भी उसका मज़ा पूरा नहीं ले पाते क्योंकि हमें सुख भोगते समय भी उस सुख के पीछे भविष्य में आने वाले दुःख की परछाई खड़ी नज़र आती है । स्थूल दृष्टि के अनुसार हनुमान एक बन्दर और श्रीराम एक मनुष्य थे और सूक्ष्म दृष्टि के अनुसार सेवक और प्रभु । दोनों ही प्रकार से होने पर सुख-दुःख झेलना ही पड़ता है । बन्दर होने और सेवक होने के अपने सुख-दुःख हैं और मनुष्य और प्रभु होने के अपने । श्रीराम इसी दृष्टि के कारण सीता हरण होने पर विलाप करते हैं,लक्ष्मण के मूर्छित होने पर दुखी होते हैं । हनुमान का व्यवहार भी इसी अनुरूप था । जानकी की खोज कर वे प्रसन्नता अनुभव करते है और जानकी को दुखी देखकर दुखी भी हो जाते हैं ।
प्रश्न यही उठता है कि जब श्रीराम साक्षात् परम-ब्रह्म ही थे,फिर उन्होने सुख-दुःख का अनुभव क्यों किया?प्रश्न का उठना शत प्रतिशत सत्य है। दृष्टि की भी अपनी एक प्रकृति होती है ,उसी अनुसार उस व्यक्ति का आचरण होता है । जब श्रीराम ने इस धरा पर एक मानव के रूप में जन्म लिया है तो उन्हें भी अपने बनाये नियमों के अनुसार ही चलना था । परमात्मा होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य की भूमिका में जीवन जीते हुए वे मनुष्य की दृष्टि के अनुसार कार्य न करे । उन्हें भी मुक्त होने के लिए कारण दृष्टि का ही उपयोग करना पड़ा । लगभग ऐसा ही आप श्रीकृष्ण के जीवन में देख सकते है । गीता में तो वे एकदम स्पष्ट कहते हैं कि "मेरे लिए कोई भी कर्म नहीं है फिर भी मनुष्य रूप में आकर मुझे भी सब कर्म करने पड़ते हैं। अगर मैं कर्म न करूं तो मेरे को देखते हुए सभी मनुष्य भी कर्म करना बंद कर सकते है । कर्म करना प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है । इस कारण से मनुष्य रूप में जन्म लेकर मुझे भी सब कर्म करने पड़ते हैं ।"
इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि परमात्मा ने सबके लिए नियम बना रखे हैं । उन नियमों के अनुसार चलना ही जीवन जीने की आदर्श कला है । आपकी दृष्टि चाहे कोई सी भी हो,परमात्मा द्वारा स्थापित नियम ही सर्वोपरि है और सत्य भी ।
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि आपको सुख-दुःख और जन्म-मरण के दुष्चक्र से बाहर ही नहीं आने देगी । इस जीवन का आनंद उठाना तो आपकी कल्पना से भी बाहर होगा । जीवन परमात्मा ने आनंदित होने के लिए दिया है,न कि सुख-दुःख झेलने के लिए । झेलना मैं इसलिए कहता हूँ कि व्यक्ति न तो सुख पाकर संतुष्ट होता है और न ही दुःख के आगमन का आह्वान करता है । सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह है । सुख के साथ सदैव ही दुःख जुड़ा होता है । इसका ज्ञान हममें से प्रत्येक को है । इसी कारण से हम लोग जब सुख आता है तब भी उसका मज़ा पूरा नहीं ले पाते क्योंकि हमें सुख भोगते समय भी उस सुख के पीछे भविष्य में आने वाले दुःख की परछाई खड़ी नज़र आती है । स्थूल दृष्टि के अनुसार हनुमान एक बन्दर और श्रीराम एक मनुष्य थे और सूक्ष्म दृष्टि के अनुसार सेवक और प्रभु । दोनों ही प्रकार से होने पर सुख-दुःख झेलना ही पड़ता है । बन्दर होने और सेवक होने के अपने सुख-दुःख हैं और मनुष्य और प्रभु होने के अपने । श्रीराम इसी दृष्टि के कारण सीता हरण होने पर विलाप करते हैं,लक्ष्मण के मूर्छित होने पर दुखी होते हैं । हनुमान का व्यवहार भी इसी अनुरूप था । जानकी की खोज कर वे प्रसन्नता अनुभव करते है और जानकी को दुखी देखकर दुखी भी हो जाते हैं ।
प्रश्न यही उठता है कि जब श्रीराम साक्षात् परम-ब्रह्म ही थे,फिर उन्होने सुख-दुःख का अनुभव क्यों किया?प्रश्न का उठना शत प्रतिशत सत्य है। दृष्टि की भी अपनी एक प्रकृति होती है ,उसी अनुसार उस व्यक्ति का आचरण होता है । जब श्रीराम ने इस धरा पर एक मानव के रूप में जन्म लिया है तो उन्हें भी अपने बनाये नियमों के अनुसार ही चलना था । परमात्मा होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य की भूमिका में जीवन जीते हुए वे मनुष्य की दृष्टि के अनुसार कार्य न करे । उन्हें भी मुक्त होने के लिए कारण दृष्टि का ही उपयोग करना पड़ा । लगभग ऐसा ही आप श्रीकृष्ण के जीवन में देख सकते है । गीता में तो वे एकदम स्पष्ट कहते हैं कि "मेरे लिए कोई भी कर्म नहीं है फिर भी मनुष्य रूप में आकर मुझे भी सब कर्म करने पड़ते हैं। अगर मैं कर्म न करूं तो मेरे को देखते हुए सभी मनुष्य भी कर्म करना बंद कर सकते है । कर्म करना प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है । इस कारण से मनुष्य रूप में जन्म लेकर मुझे भी सब कर्म करने पड़ते हैं ।"
इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि परमात्मा ने सबके लिए नियम बना रखे हैं । उन नियमों के अनुसार चलना ही जीवन जीने की आदर्श कला है । आपकी दृष्टि चाहे कोई सी भी हो,परमात्मा द्वारा स्थापित नियम ही सर्वोपरि है और सत्य भी ।
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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