Monday, May 26, 2014

सत्य - असत्य |-२८

                                         अहंकार व्यक्ति को तभी पैदा होता है जब वह अपने होने को ही वास्तविकता समझ बैठता है । स्वयं का होना स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि से तो सत्य है परन्तु कारण दृष्टि से नहीं । कारण दृष्टि यह कहती है कि जो भी है ,सब परमात्मा ही है । जिस प्रकार आप परमात्मा के एक अंश है उसी प्रकार संसार में जो भी आप देखते हैं वह भी परमात्मा की ही देन है । उन सब में भी परमात्मा ही निवास करता है । जब आप भी वही है,सब भी वही है और अन्य में भी वही है अर्थात जब सब कुछ वही है तो फिर आपका उससे अलग होना कैसे हो सकता है ?जब तक आप अपने आप को उससे अलग मानते रहोगे,अहंकार कभी भी समाप्त नहीं होगा । जिस दिन सब कुछ में उसे और उसके कारण से होना मानने लगोगे ,यह अहंकार तुरंत ही तिरोहित हो जायेगा । अहंकार के जाते ही आपका "मैं"भी चला जायेगा और जो कुछ भी शेष बचेगा वही पूर्ण सत्य होगा ।
                        गीता के विभूति योग नामक अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया है । अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि यहाँ जो कुछ भी अच्छा-बुरा है,वह सब मैं ही हूँ । वे तो  यहाँ तक कह देते हैं कि छल करने वालों में मैं जुआ हूँ । वे दैत्यों में अपने आप को प्रह्लाद कहते हैं ,पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ । अंत में तो वे यहाँ तक कह देते हैं कि-जो भी विभूतियुक्त,ऐश्वर्ययुक्त , कान्ति युक्त और शक्तियुक्त वस्तु है,उन सबको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान अर्थात श्रीकृष्ण कहना चाहते हैं कि मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योग शक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ । जब सभी और वह एक मात्र परमात्मा ही है तो फिर असत्य का स्थान ही कहाँ रहता है ?इसका एक ही अर्थ मेरे समझ में  आता है ,वह है कि परमात्मा ही सत्य है और सब ओर वही है ,दृश्यमान में भी और अदृश्य में भी ।
                            यह ज्ञान सब लोगों को है परन्तु सारा ज्ञान केवल किताबी ज्ञान ही है । जब बात परिवार,परिजनों और स्वार्थ की आती है ,तब यह ज्ञान बहुत दूर कही पीछे छूट जाता है । मेरे कहने का अर्थ यह है कि सब कुछ जानते और समझते हुए भी इस ज्ञान का उपयोग हम अपनी निजी जिंदगी में नहीं करना चाहते । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमें परमात्मा पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं है । मैं जानता हूँ कि आप मेरी इस बात से सहमत कदापि नहीं होंगे क्योंकि वास्तविक सत्य से मुंह फेरना मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है । परन्तु आपके या मेरे मानने अथवा ना मानने से फर्क ही क्या पड़ता है ? सत्य तो सदैव  सत्य ही रहेगा । सत्य तो केवल परमात्मा ही है और वह कभी भी नहीं बदलता ।
क्रमशः
                                       ||  हरिः शरणम्  ||

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