प्रार्थनाओं का क्या प्रभाव या परिणाम होता है ,यह तो मुझे नहीं मालूम । परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि भाव शून्य प्रार्थना का कोई महत्त्व नहीं होता है । आज के इस युग में भावना प्रधान कुछ भी नहीं रह गया है । इस भावहीनता के कारण ही आज मनुष्य एक तनावपूर्ण जिन्दगी जीने को मज़बूर है । हम भावनाओं से इतना दूर क्यों होते जा रहे हैं ?क्यों हमारी जुबान महत्वहीन होती जा रही है?क्यों आज हम एक दूसरे की बातों पर अविश्वास करने लगे हैं ?ऐसे में हम कैसे विश्वास कर सकते हैं कि हमारी भावहीन प्रार्थना को परमात्मा स्वीकार कर ही लेगा ?
आज सुबह मैं अपनी दिनचर्या के अनुरूप समाचार पत्र पढ़ रहा था । एक छोटे से कॉलम में छपी खबर पर निगाह अटक गई । समाचार था कि एक कोर्ट के न्यायाधीश ने न्यायालय की अवमानना के अपराध में एक वकील को एक माह की सजा सुनाते हुए जेल भेज दिया ,बावजूद इसके कि वकील ने न्यायालय की अवमानना को स्वीकार करते हुए लिखित में क्षमा भी मांग ली थी । माननीय न्यायाधीश ने अपने फैसले ,में लिखा है कि लिखित में क्षमा याचना करने से कुछ भी नहीं होता जब तक कि दिल से यह स्वीकार नहीं किया जाये कि मुझसे गलती हुई है और इस गलती के प्रायश्चित के तौर पर मुझे ह्रदय से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए ।
यह सब पढ़कर मैं बड़ा ही खुश हुआ कि न्यायलय भी भावना को तथ्यों और सबूतों से अधिक महत्त्व देता है । नहीं तो आजकल न्यायालयों में भी ऐसी बातें महज औपचारिकताएं बनती जा रही है ।माननीय न्यायाधीश का यह कहना एकदम सत्य है कि क्षमा जब तक ह्रदय से ,दिल से,भीतरसे नहीं मांगी जाती और बिना अपराध बोध स्वीकार किये लिखित में मांगी जाती है तब ऐसी क्षमा भी महत्वहीन है । ऐसी क्षमा प्रार्थना स्वीकार करने योग्य नहीं है । इस केस में न्यायाधीश का यह कहना उचित है कि अपराधबोध हुए बगैर औपचारिकतावश लिखित में की गई क्षमा प्रार्थना का कोई महत्त्व नहीं है ।
प्रतिदिन हम परमात्मा की आरती करते हैं । आरती अर्थात आर्त भाव से परमात्मा की प्रार्थना करना । पर क्या हमारी प्रार्थना में भाव होता है ?हम कहते हैं कि "तन,मन,धन सब कुछ है तेरा" । क्या ऐसा कहते समय हमारा भाव भी इसी अनुरूप होता है ?क्या परमात्मा आकर एक दिन हमसे हमारा सब कुछ ले जाये तो क्या हम अपना सर्वस्व देने को तैयार हैं ?कहना और करना ,इन दोनों में जब तक अंतर रहता है तब तक हमारी प्रार्थना भावशून्य ही रहेगी और भावशून्य प्रार्थना का महत्त्व रत्ती भर भी नहीं होता । हमें यह निश्चित करना होगा कि हमारे तन,मन और धन का हमारे लिए क्या और कैसा महत्त्व है,तभी हम अपनी प्रार्थना में भाव पैदा कर सकते हैं ,अन्यथा नहीं ।
॥ हरिः शरणम् ॥
आज सुबह मैं अपनी दिनचर्या के अनुरूप समाचार पत्र पढ़ रहा था । एक छोटे से कॉलम में छपी खबर पर निगाह अटक गई । समाचार था कि एक कोर्ट के न्यायाधीश ने न्यायालय की अवमानना के अपराध में एक वकील को एक माह की सजा सुनाते हुए जेल भेज दिया ,बावजूद इसके कि वकील ने न्यायालय की अवमानना को स्वीकार करते हुए लिखित में क्षमा भी मांग ली थी । माननीय न्यायाधीश ने अपने फैसले ,में लिखा है कि लिखित में क्षमा याचना करने से कुछ भी नहीं होता जब तक कि दिल से यह स्वीकार नहीं किया जाये कि मुझसे गलती हुई है और इस गलती के प्रायश्चित के तौर पर मुझे ह्रदय से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए ।
यह सब पढ़कर मैं बड़ा ही खुश हुआ कि न्यायलय भी भावना को तथ्यों और सबूतों से अधिक महत्त्व देता है । नहीं तो आजकल न्यायालयों में भी ऐसी बातें महज औपचारिकताएं बनती जा रही है ।माननीय न्यायाधीश का यह कहना एकदम सत्य है कि क्षमा जब तक ह्रदय से ,दिल से,भीतरसे नहीं मांगी जाती और बिना अपराध बोध स्वीकार किये लिखित में मांगी जाती है तब ऐसी क्षमा भी महत्वहीन है । ऐसी क्षमा प्रार्थना स्वीकार करने योग्य नहीं है । इस केस में न्यायाधीश का यह कहना उचित है कि अपराधबोध हुए बगैर औपचारिकतावश लिखित में की गई क्षमा प्रार्थना का कोई महत्त्व नहीं है ।
प्रतिदिन हम परमात्मा की आरती करते हैं । आरती अर्थात आर्त भाव से परमात्मा की प्रार्थना करना । पर क्या हमारी प्रार्थना में भाव होता है ?हम कहते हैं कि "तन,मन,धन सब कुछ है तेरा" । क्या ऐसा कहते समय हमारा भाव भी इसी अनुरूप होता है ?क्या परमात्मा आकर एक दिन हमसे हमारा सब कुछ ले जाये तो क्या हम अपना सर्वस्व देने को तैयार हैं ?कहना और करना ,इन दोनों में जब तक अंतर रहता है तब तक हमारी प्रार्थना भावशून्य ही रहेगी और भावशून्य प्रार्थना का महत्त्व रत्ती भर भी नहीं होता । हमें यह निश्चित करना होगा कि हमारे तन,मन और धन का हमारे लिए क्या और कैसा महत्त्व है,तभी हम अपनी प्रार्थना में भाव पैदा कर सकते हैं ,अन्यथा नहीं ।
॥ हरिः शरणम् ॥
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