Wednesday, May 14, 2014

सत्य - असत्य |-१६

                                     भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के ९ वें अध्याय के १९ वें श्लोक में स्पष्ट कर दिया है कि इस ब्रह्माण्ड में जो भी है वह सब मैं ही हूँ या मेरे कारण ही है । इसके अंतर्गत वे सत्य-असत्य को भी स्पष्ट कर देते हैं कि सत-असत  भी मैं ही हूँ ।  इसलिए अब यह जानना आवश्यक हो गया है कि वे ही सत और असत दोनों कैसे हो सकते हैं ? भगवान श्रीकृष्ण परम-ब्रह्म के ही एक व्यक्त रूप है । अतः परम-ब्रह्म परमात्मा ही सत-असत हैं । इसको और सपष्ट करने के लिए हमें अपने शास्त्रों,वेद और उपनिषद् की तरफ उन्मुख होना होगा । शास्त्रों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि सत-असत भी उस परम-ब्रह्म के ही कारण है । परन्तु सत - असत दोनों होने के बावजूद भी वह इन दोनों से परे  हैं । जो सत-असत का कारण है ,वह सत-असत के समकक्ष या उससे ऊपर ही हो सकता है । अतः यह कहना कि परम-ब्रह्म परमात्मा सत-असत है और इन दोनों से परे है,उचित ही है ।
                                     हमारे पवित्र ग्रन्थ कहते हैं कि  परम-ब्रह्म के दो प्रकृतियाँ है,जिनके कारण उसे सत भी कहा जाता है और असत भी । एक परा और एक अपरा प्रकृति । सुविधा के लिए हम इसे सत और असत प्रकृति भी कह सकते हैं । सत प्रकृति है-अस्ति,भाति और प्रियम् । असत प्रकृति है-नाम और रूपम् । इस प्रकार परम-ब्रह्म परमात्मा की कुल पांच प्रकृति हुई । जिनमे तीन तो सत प्रकृति है और दो असत । सत प्रकृति वह होती है जो कभी भी  परिवर्तित नहीं होती है और असत प्रकृति वह है जो परिवर्तनशील है ।
                                 इस संसार में जो भी परिवर्तनशील है ,उसे हम असत कह देते है । जैसे संसार में जो भी दृष्टिगत है,वह  प्रतिपल बदल रहा है । यहाँ पर जो भी परिवर्तन हो रहा है वह सब इतनी तेज गति से हो रहा है कि आप अनुमान भी नहीं लगा सकते । जब इतना परिवर्तनशील यह संसार है तो फिर वह सत्य कैसे हो सकता है ? यह कहना और मानना एक दम सही है । जब यह संसार असत्य है ,तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि यहाँ सह कुछ सत्य ही है ? संसार प्रतिपल बदल रहा है इस कारण से संसार असत्य हुआ ,यह बात तो सत्य ही हुई न । इसी कारण से संसार को कभी भी सत्य नहीं कहा गया है बल्कि इसकी परिवर्तनशीलता को सत्य कहा गया है । इस सत्य को समझ लेना ही सत्य को पा लेना है । जब आपको संसार की परिवर्तनशीलता का अनुभव हो जायेगा फिर आपकी आसक्ति इसकी किसी भी बात में पैदा नहीं  हो सकती । आसक्ति रहित हो जाना ही सत्य को पा लेना है । 
क्रमशः
                      || हरिः शरणम् ||           

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