Saturday, May 3, 2014

सत्य - असत्य |-५

                                           सत्य और असत्य के चक्कर मे पड़ने के स्थान पर यह उचित होगा कि हम यह समझें कि सँसार मे  जो भी दृष्टिगत है और अदृश्य है ,सब सत्य है । चूँकि इस ब्रह्माण्ड मे जो दिखाई दे रहा  है वह सब उस परमब्रह्म का ही खेल है और जो आज दिखाई नहीं दे रहा है और भविष्य में कभी भी व्यक्त हो सकता है वह भी उस शक्तिशाली परमब्रह्म के कारण सम्भव है । इसी कारण  से संसार को असत्य कहना नितांत ही अनुचित है । अँधेरे का अर्थ प्रकाश की अनुपस्थिति नहीं है बल्कि प्रकाश की मात्रात्मक कमी है । ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि अँधेरा और प्रकाश एक दूसरे के विलोम है । यहाँ सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । सत्य केवल सांसारिकता की दृष्टि से ही असत्य हो जाता है और असत्य भी सत्य प्रतीत होता  है । अन्यथा असत्य तो अस्तित्व विहीन है । इसको अगर और स्पष्ट करूँ तो कह सकता हूँ कि  आप का व्यक्त होना यानि एक व्यक्ति के रूप मे होना सत्य है । परन्तु आपका धनवान होना सत्य होते हुये भी असत्य होता है । धन भी  परमब्रह्म का पैदा किया हुआ है ,इस कारण से असत्य तो हो ही नहीं सकता । फिर भी संसार की दृष्टि में असत्य है । इसका कारण धन में व्यक्ति की  आसक्ति होना है । धन में आसक्ति न हो तो यह सत्य है और आसक्ति होने पर वही धन असत्य ।  गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
                                        नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
                                        उभयोरपि दृष्टोSअन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥गीता २/१६ ॥
अर्थात , असत वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव  नहीं है । इस प्रकार दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानियों द्वारा देखा गया है ।
                    सत में व्यक्ति की आसक्ति नहीं होती है । जब सत में आसक्ति पैदा हो जाती है तो फिर वह सत नहीं रहता बल्कि असत हो जाता है । असत वह है जो परिवर्तनशील है और सत कभी भी परिवर्तित नहीं होता है । आसक्ति होने पर उस वस्तु का अभाव हो जाने पर व्यक्ति को दुःख होता है । जबकि सत परिवर्तित नहीं होता ,जिससे उसका अभाव भी नहीं होता ,आसक्ति भी नहीं होती तथा फलस्वरूप दुःख भी नहीं होता । इसे ही  सत्य का असत्य हो जाना कहते है । सत्य के प्रति आसक्ति ही सत्य को असत्य बना देती है । यह दोष सत्य का नहीं है बल्कि आसक्ति का है ।
                संसार में सब कुछ सत्य है ,धन भी,यह शरीर भी,यह प्रकृति भी ,पुत्र,पुत्री,माता,पिता,पति,पत्नी  और  समस्त रिश्ते नाते भी और यहाँ तक कि आपके सोते समय या जागते हुए देखे जाने वाले सपने भी ,सब कुछ सत्य है । असत्य या असत तो ये सब ,तब  होजाते हैं जब इनमे व्यक्ति की आसक्ति पैदा होजाती है । आसक्ति पैदा होते ही कामना और आकांक्षाएं पैदा होने लगती है,जिनके पूरा होने या न होने से सुख या  दुःख होता है ।  अतः जिंदगी जीने की कला अगर सीखनी है तो फिर आसक्ति रहित हो जाइये । चारों ओर सत्य ही सत्य नज़र आएगा ,असत्य का नामोनिशान तक नहीं होगा । फिर न तो अत्यधिक ख़ुशी और न ही दुःख का अनुभव होगा । केवल आनन्द ही आनन्द होगा । आसक्ति रहित होना ही प्रेममय होना है । प्रेम ही एक मात्र संसार में ऐसा है जो आसक्ति से विलग है । अतः संसार में वास्तविकता में सत्य प्रेम ही है और प्रेम ही परमब्रह्म परमात्मा है ।
क्रमशः
                              ॥ हरिः शरणम् ॥      

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