शैव्या,जो कि पूर्व महारानी और राजा हरिशचंद्र की धर्मपत्नी है,से हरिशचंद्र का चिंतित रहना असहनीय होता जा रहा था । आखिर एक दिन सब कुछ सोच समझकर उसने हरिशचंद्र को प्रस्ताव दिया कि क्यों न वे उसे किसी को बेच दे , जिससे दक्षिणा की राशि जुटाई जा सके । हरिशचंद्र ने बहुत सोचने और विचारने के बाद अपनी पत्नी शैव्या को एक ब्राहमण के हाथों बेच दिया । जब ब्राह्मण शैव्या को ले जाने लगा तो रोहिताश्व रोने लगा । हरिशचंद्र ने ब्राह्मण से रोहिताश्व को भी साथ ले जाने का आग्रह किया । ब्राह्मण ने उस आग्रह को स्वीकार करते हुए दोनों को साथ लेकर चला गया । दोनों को ब्राह्मण को देने के उपरांत भी दक्षिणा में दी जाने वाली राशि अपर्याप्त थी । थकहारकर हरिशचंद्र ने अपने आप को भी एक चांडाल के हाथ बेच दिया और ऋषि विश्वामित्र को दक्षिणा देकर दान लेना स्वीकार कराया। वापिस लौट आने पर चांडाल ने उन्हें शमशान घाट की जिम्मेदारी दी । उनका कार्य अंतिम संस्कार के लिए लाये जाने वाले शवों के अंतिम संस्कार के एवज में परिजनों से कर वसूलना था ।
एक बार रोहिताश्व बाग में फूल चुन रहा था ,तभी एक जहरीले सर्प ने उसे डस लिया । सर्प के डसते ही उसकी मृत्यु हो गयी । उसकी माता शैव्या उसके शव पर विलाप करने लगी । अंत में अपने आपको संभलकर वह रोहिताश्व के शव को अंतिम संस्कार के लिए उसी शमशान घाट ले गयी,जहाँ पर कर वसूलने के लिए हरिशचंद्र नियुक्त थे । शैव्या के साथ अपने पुत्र रोहिताश्व के शव को देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ । परन्तु उन्होंने रोहिताश्व का अंतिम संस्कार बिना कर चुकाए करने से साफ मना कर दिया । शिव्या ने बहुत आग्रह किया और बताया कि उसके पास कर में देने को कुछ भी नहीं है । फिर भी हरिशचंद्र बिना कर चुकाए अंतिम संस्कार करने को तैयार नहीं हुए । आखिरकार शैव्या अपनी साड़ी का आधा हिस्सा कर में देने को तैयार हुई । ज्योंही उसने अपनी साड़ी के दो टुकडे करने शुरू किये ,भगवान विष्णु प्रकट हो गए । कहा जाता है कि चांडाल के रूप में यम था और देवताओं ने हरिशचंद्र की परीक्षा लेने के लिए यह सब किया था । कहानी आगे बढती है और रोहिताश्व पुनः जीवित हो जाता है । इंद्र आते है और हरिशचंद्र को स्वर्ग ले जाते हैं और रोहिताश्व को विश्वामित्र ने अयोध्या का राज्य लौटाते हुए उन्हें वहां का राजा बना दिया ।
इससे अधिक जानकारी सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र के बारे में मुझे पर्याप्त प्रयास करने के बाद भी उपलब्द्ध नहीं हुई । मैं सोचने को विवश हूँ कि किस आधार पर राजा हरिशचन्द्र को सत्यवादी कहा गया ? मैं अपने विवेकानुसार इसे प्रमाणित करने का प्रयास कर रहा हूँ । सत्य को जाननेवाला और उस पर विश्वास करने वाला ही सत्यवादी कहला सकता है ,केवल सत्य बोलने वाला नहीं । इस मापदंड पर राजा हरिशचन्द्र खरे उतरते हैं । प्रथम प्रमाण यह है कि दान में दिए हुए राज्य को स्वीकार करने के लिए दी जाने वाली दक्षिणा के लिए जो समय उन्होंने ऋषि विश्वामित्र को दिया था,उन्होंने उस वचन की पालना के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया । दूसरा प्रमाण-अपने पुत्र को मृत देखकर भी वे अपने कर्तव्य पथ से बिलकुल भी च्युत नहीं हुए । तीसरा - पूर्व में एक राजा होते हुए भी चांडाल के प्रति पूर्ण भाव से समर्पित रहे । अंतिम प्रमाण यह कि उन्होंने सदैव ही समतापूर्ण व्यवहार किया जो कि एक सत्यवादी कहलाने के लिए पर्याप्त और आवश्यक योग्यता होती है ।
ऐसे महापुरुष के जीवन के बारे में मुझे और अधिक जानकारी नहीं मिल पाई ,इसका अफ़सोस है । किसी पाठक को इससे अधिक जानकारी हो तो कृपया प्रेषित करने का श्रम करें । मैं उनका ह्रदय से आभारी होऊंगा ।
|| हरिः शरणम् ||
एक बार रोहिताश्व बाग में फूल चुन रहा था ,तभी एक जहरीले सर्प ने उसे डस लिया । सर्प के डसते ही उसकी मृत्यु हो गयी । उसकी माता शैव्या उसके शव पर विलाप करने लगी । अंत में अपने आपको संभलकर वह रोहिताश्व के शव को अंतिम संस्कार के लिए उसी शमशान घाट ले गयी,जहाँ पर कर वसूलने के लिए हरिशचंद्र नियुक्त थे । शैव्या के साथ अपने पुत्र रोहिताश्व के शव को देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ । परन्तु उन्होंने रोहिताश्व का अंतिम संस्कार बिना कर चुकाए करने से साफ मना कर दिया । शिव्या ने बहुत आग्रह किया और बताया कि उसके पास कर में देने को कुछ भी नहीं है । फिर भी हरिशचंद्र बिना कर चुकाए अंतिम संस्कार करने को तैयार नहीं हुए । आखिरकार शैव्या अपनी साड़ी का आधा हिस्सा कर में देने को तैयार हुई । ज्योंही उसने अपनी साड़ी के दो टुकडे करने शुरू किये ,भगवान विष्णु प्रकट हो गए । कहा जाता है कि चांडाल के रूप में यम था और देवताओं ने हरिशचंद्र की परीक्षा लेने के लिए यह सब किया था । कहानी आगे बढती है और रोहिताश्व पुनः जीवित हो जाता है । इंद्र आते है और हरिशचंद्र को स्वर्ग ले जाते हैं और रोहिताश्व को विश्वामित्र ने अयोध्या का राज्य लौटाते हुए उन्हें वहां का राजा बना दिया ।
इससे अधिक जानकारी सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र के बारे में मुझे पर्याप्त प्रयास करने के बाद भी उपलब्द्ध नहीं हुई । मैं सोचने को विवश हूँ कि किस आधार पर राजा हरिशचन्द्र को सत्यवादी कहा गया ? मैं अपने विवेकानुसार इसे प्रमाणित करने का प्रयास कर रहा हूँ । सत्य को जाननेवाला और उस पर विश्वास करने वाला ही सत्यवादी कहला सकता है ,केवल सत्य बोलने वाला नहीं । इस मापदंड पर राजा हरिशचन्द्र खरे उतरते हैं । प्रथम प्रमाण यह है कि दान में दिए हुए राज्य को स्वीकार करने के लिए दी जाने वाली दक्षिणा के लिए जो समय उन्होंने ऋषि विश्वामित्र को दिया था,उन्होंने उस वचन की पालना के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया । दूसरा प्रमाण-अपने पुत्र को मृत देखकर भी वे अपने कर्तव्य पथ से बिलकुल भी च्युत नहीं हुए । तीसरा - पूर्व में एक राजा होते हुए भी चांडाल के प्रति पूर्ण भाव से समर्पित रहे । अंतिम प्रमाण यह कि उन्होंने सदैव ही समतापूर्ण व्यवहार किया जो कि एक सत्यवादी कहलाने के लिए पर्याप्त और आवश्यक योग्यता होती है ।
ऐसे महापुरुष के जीवन के बारे में मुझे और अधिक जानकारी नहीं मिल पाई ,इसका अफ़सोस है । किसी पाठक को इससे अधिक जानकारी हो तो कृपया प्रेषित करने का श्रम करें । मैं उनका ह्रदय से आभारी होऊंगा ।
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment