Wednesday, April 30, 2014

सत्य - असत्य |-३

                           राजा जनक तो सत्य और असत्य जानने के जंजाल से मुक्त होकर जीते जी ही "विदेह"हो गए । परन्तु यह संसार न तो सत्य को और न ही असत्य को , आज तक समझ पाया है । आज जिसे हम सत्य कह रहे हैं ,जरा गंभीरता के साथ विचार कीजिये-क्या वास्तव में वही सत्य है ?असत्य और सत्य को कहना और जानना मात्र सांसारिकता के  अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । आध्यात्मिकता के लिए इनके कोई मायने नहीं है। हम सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र  की बातें बहुत करते हैं । परन्तु उनको सत्यवादी कैसे  और किस आधार पर कहा जाता है,कभी जानने की कोशिश की है । नहीं,हम सब इनके जीवन को एक कथा और कहानी के रूप में ही पढ़ते ,देखते और सुनते आएं है । आज हम इसी कहानी को फिर से दोहराते हैं , यह जानने के लिए कि  वास्तव में क्या वो सत्यवादी थे,सत्य को उन्होने पहचान लिया था या नहीं ।
                          हम सब जानते ही हैं कि हरिशचन्द्र एक राजा थे और सत्य की राह पर चलते हुए वे बड़ी ही दीन हीन अवस्था में आ गए थे । उनका यह सत्य के प्रति अनुराग की ही पराकाष्ठा थी जो इन परिस्थितियों के लिए उत्तरदाई थी । क्या सत्य के मार्ग पर चलने वालों के साथ ऐसा भी हो सकता है ? विचारणीय विषय यही है । अगर सत्य के  कारण  ऐसी परिस्थितियां आ सकती है ,तो ऐसे में क्या सत्य के मार्ग पर चलते रहना उचित है ? मैं नहीं कहता कि परिस्थितियों के विपरीत हो जाने की संभावनाओं के भय से व्यक्ति को सही राह का परित्याग कर देना चाहिए । परन्तु राजा हरिशचन्द्र  की तरह अगर किसी को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़े तो आज के युग में किसी भी व्यक्ति का ऐसे सत्य से मोह भंग हो सकता है । 
                       सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र एक समय अयोध्या के राजा हुआ करते थे । एक बार जब वे अपने राज्य में  भ्रमण थे ,उस दौरान उन्होंने किसी महिला की करूण पुकार सुनी ।वे उस आवाज़ की दिशा में दौड़ पड़े । उनको उस दिशा में कुछ भी दिखाई नहीं दिया । जल्दबाजी में वे विश्वामित्र ऋषि के आश्रम में प्रवेश कर गए । ऋषि उस समय ध्यान समाधि में थे । अचानक आश्रम में हो रहे घटनाक्रम से उनकी समाधि भंग  हो गई । समाधि भंग जानकर राजा हरिशचन्द्र भयभीत हो गए । ऋषि विश्वामित्र के संभावित क्रोध  को सम्मुख देखकर उन्होंने उनका क्रोध शांत करने के उद्देश्य से अपना समस्त राज्य ऋषि को दान में दे दिया । ऋषि ने दान स्वीकार करने के लिए दक्षिणा की मांग की । परन्तु राजा हरिशचंद्र  ने अपना सर्वस्व दे दिया था ,उनके पास तो दक्षिणा में देने के लिए कुछ भी नहीं था । उन्होंने ऋषि को दक्षिणा चुकाने के लिए एक माह का  समय माँगा ।  
                       राजा हरिशचन्द्र तत्काल ही अयोध्या छोड़कर अपनी धर्मपत्नी शैव्या और एक मात्र पुत्र रोहिताश्व के साथ अयोध्या छोड़कर काशी के लिए निकल पड़े । वहां पर उन्होंने मेहनत मज़दूरी करना प्रारम्भ किया । लेकिन यह सब दान की दक्षिणा के लिए प्रयाप्त नहीं  था । इधर ऋषि विश्वामित्र को दक्षिणा चुकाने का समय बड़ी ही तेजी के साथ पास आता जा रहा था । राजा हरिशचन्द्र , जो अब राजा नहीं रहे थे ,एक साधारण नागरिक हो गए थे ,बहुत ही चिंतित रहने लगे । 
क्रमशः
                                      || हरिः शरणम् ||       

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