मनुष्य इस जगत में जीवन भर नाचता रहता है। उसके नृत्य का यह चक्र अनेक जन्मों तक चलता ही रहता है। भारतीय चिंतक, संत और भक्त इस तथ्य को अच्छी तरह जानते थे। तभी तो सूरदास जी कहते हैं, 'अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।'
इसी पद में वह आगे कहते हैं कि मुझे तो यह भी याद नहीं है कि मैं कितनी योनियों में कितने जन्म लेकर जल और थल में यह नृत्य करता रहा हूं। यही दशा हम सभी की है। यह नृत्य क्या है? मनुष्य की सांसारिक भोगों में लिप्तता, जिसके चलते वह अकरणीय कर्म भी करता रहता है। अनादिकाल से चला आ रहा जीव अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। मनुष्य-रूप में ही जीव ज्ञान-प्राप्ति व जीवन-मुक्ति के प्रयास कर सकता है। जीव को मानव-शरीर मुश्किल से मिलता है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं- 'बड़े भाग मानुष तन पावा'।
मानव-शरीर ही साधनों का भंडार और मुक्ति का द्वार है। इसलिए साधनों के भंडार इस मानव-शरीर को पाकर हमें अपने जीवन को संवार लेना चाहिए। मनुष्य को ही केवल विवेक-बुद्धि मिली हुई है, जिसके द्वारा वह यह निर्धारण कर सकता है कि उसके लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय? उसे अपने अच्छे और बुरे सभी कर्मों के फलों का भोग भोगना ही पड़ता है। मनुष्य अपने कर्मो में से कुछ का भोग अपने इसी जीवन में करता है और कुछ का अगले जन्मों में। इस प्रकार मनुष्य के कर्मो के फल आंशिक फलीभूत होते हैं, शेषांश संचित कर्म-रूप में एकत्र रहते हैं। इन्हीं संचित कर्मो से प्रारब्ध बनता है और मनुष्य सुख-दु:ख का भोग करता है। 'कर्म का भोग, भोग का कर्म' यही मानव-नियति है। इससे मुक्ति केवल विवेक से ही प्राप्त हो सकती है।
विवेक सत्संग से मिलता है और सत्संग ईश कृपा के बिना संभव नहीं है। निष्काम कर्म और निष्काम उपासना की साधना भी इसका एक उपाय है। इससे साधक का चित्त शुद्ध और एकाग्र हो जाता है। उसकी अविद्या नष्ट हो जाती है। वह मोह-निद्रा से जाग जाता है। संत तुलसीदास कहते हैं कि राम की कृपा से एक बार जाग्रत (ज्ञान-प्राप्ति) हो जाने के बाद अब जीवात्मा फिर से सांसारिक भोगों में लिप्त नहीं होगी, बल्कि वह अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगी।
|| हरिः शरणम् ||
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