पूजा हमारी श्रद्धा का प्रतिफल है। किसी में श्रद्धा होती है तो उसे पूजने का मन होता है। सगुण उपासक को पूजा के लिए एक 'स्वरूप' की आवश्यकता होती है। निगरुण उपासना के लिए उपासक की श्रद्धा एक परम शक्ति में होती है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। इस धरा पर पूजा कैसे शुरू हुई, इस पर धर्म गुरुओं के अपने-अपने मत हो सकते हैं, परंतु एक तटस्थ शोधकर्ता के लिए यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है। कुछ लोग रोज पूजा करते हैं और कुछ लोग कभी-कभी। कुछ लोगों के लिए कर्म ही पूजा है तो कुछ 'व्यक्ति विशेष' की पूजा में ही मगन रहते हैं। आम आदमी से लेकर विशेष आदमी तक, सभी लोग पूजा फल के लिए ही करते हैं।
गीता जैसे ग्रंथ 'निष्काम' पूजा की वकालत करते हैं। अपने कर्मो को बिना फल की इच्छा किए बगैर ही प्रभु को समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर है। भारतीय अध्यात्म कर्म करने को कहता है, पर फल की इच्छा से बंधे कर्म को उचित नहीं ठहराता। कर्म बंधन से मुक्त रहकर कर्म करना ही 'निष्काम-कर्म' दर्शन का आधार है। रिश्तों में बंधे अर्जुन महाभारत युद्ध के आरंभ में कृष्ण के गीता-उपदेश के अठारहवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते निष्काम युद्ध के लिए तैयार हो जाते हैं। जीवन के महाभारत में निष्काम होकर लड़ना ही शायद सच्ची पूजा है।
माला फेरने से प्रभु को प्रसन्न करना अच्छी बात है, परंतु जीवन संघर्ष से भागकर केवल माला फेरना, संकीर्तन करना, आरती करना, पाठ करना या हवन करना प्रभु को भी नहीं भाता होगा। प्रभु की कृपा उन्हीं पर होती है, जो अपने निहित कर्मो का कुशलतापूर्वक संपादन करते हैं और साथ में निष्काम भाव से प्रभु की पूजा करते हैं। ऐसा भक्त अपनी कुशल-क्षेम प्रभु के हाथों में सौंपकर परमानंद में जीता है। श्रद्धा से ही मन में सकारात्मक विचारों का आगमन होता है जिसकी मदद से व्यक्ति बड़े से बड़ा काम भी कर डालता है। श्रद्धा हमें जीवन की नई राह दिखाती है। यह किसी के प्रति हो सकती है, लेकिन यह आवश्यक है कि हम श्रद्धा के नाम पर अंधविश्वास की ओर आगे न बढ़ें। हमें उचित-अनुचित का विचार अपने मन-मस्तिष्क से कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए।
|| हरिः शरणम् ||
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