Wednesday, April 23, 2014

संयम-मन का निग्रह |

                  मन हमारी इंद्रियों का राजा है। उसी के आदेश को इंद्रियां मानती हैं। आंखें रूप-अरूप को देखती हैं। वे मन को बताती हैं और हम उसी के अनुसार आचरण करने लगते हैं। आशय यह है कि हम मन के दास हैं। गलत काम करने को मन करता है और हम उसे करने लगते हैं। गलत काम कराते समय मन हम पर हावी हो जाता है। काम कराकर वह भाग जाता है और जब हमें होश आता है, तब लगता है कि ऐसा गलत काम कैसे कर लिया। यही पछताने वाली हमारी आत्मा है और गलत काम कराने वाला हमारा मन है।
                संत व महापुरुष मन को वश में करने का प्रयास करते हैं, ताकि वे मन के पार जा सकें, क्योंकि जब तक मनुष्य मन के प्रभाव में दबा रहेगा, तब तक वह आत्म तत्व में अवगाहन नहीं कर सकेगा। परमात्मा तक पहुंचने के लिए आत्मा का ही मार्ग है। ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। आत्मा परमात्मा का लघु रूप है और परमात्मा आत्मा का विस्तार है। इसलिए दोनों दृश्य नहीं हैं, सूक्ष्म हैं। जो भी भावरूप होता है, वह सूक्ष्म होता है, अनुभवगम्य होता है जैसे प्रेम, करुणा, दया, वात्सल्य आदि भाव। मन को केवल अनुभव किया जा सकता है। आप अनुभव कर सकते हैं कि आप प्रेम करना चाहते हैं या घृणा चाहते हैं। आश्चर्य की बात है कि मन अधिकतर मामलों में हमेशा नीच कर्म की ओर ही प्रेरित करता है, क्याेंकि वह इंद्रियों का राजा है।
               इंद्रिया अपने राजा मन से भोग मांगती हैं। आंख को सुंदर रूप देखने का मौका मिले, जीभ को स्वाद मिले, हाथ को स्पर्श सुख चाहिए। सभी इंद्रिया अपना भोग-विलास मन से मांगती हैं। मन को इनकी मांगें पूरी करनी पड़ती हैं। इसलिए यह चंचल रहता है, चारों ओर भागता रहता है। इस स्थिति में मन को स्थिर करना कठिन हो जाता है। इसी चंचलता के कारण मन विवेक को त्याग देता है। मन महास्वार्थी है, उसे भोग चाहिए। अगर वह विवेकशील बन जाए, तो इंद्रियों की जो अनैतिक मांगें हैं, उन्हें कैसे पूरा कर सकता है? विवेक उसे गलत काम नहीं करने देगा इसलिए मन के साथ विवेक कभी नहीं रहता। मन और विवेक का बैर है। मनुष्य ज्यों ही विवेकी बन जाता है, वह मन के पार चला जाता है। इसी को संयम कहते हैं।
                                                       || हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment