Friday, April 18, 2014

मुक्ति-आसक्ति का अभाव |

              आत्म-सुधार। शरीर विनाशी और आत्मा अविनाशी है। यही शाश्वत सत्य है। ऐसा जानकर आत्म तत्व की ही उपासना करनी चाहिए। उपनिषदों में कहा गया है कि आत्म-मंथन करना चाहिए। आत्म साक्षात्कार और भगवत दर्शन ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इस परम लक्ष्य से सांसारिक कर्तव्यों की कोई असंगति नहीं है। ऐसा नहीं है कि इसके लिए घर-बार छोड़ना आवश्यक है। आशय यह है कि संसार में रहते हुए सांसारिक कार्यों और अपने लौकिक दायित्वों का निर्वाह करना जरूरी है। अपने सांसारिक दायित्वों को पूरा करने में यदि हम असफल रहते हैं तो हम अपने आध्यात्मिक दायित्व का निर्वहन भी नहीं कर सकेंगे। इसके लिए आवश्यकता मात्र यह है कि ऐसे कार्यों में हमारी किसी तरह की आसक्ति (लगाव) न हो।
              आसक्ति का अभाव ही तो मुक्ति है। दुख का कारण हमारी अनंत इच्छाएं ही तो हैं। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तब हम दुखी हो जाते हैं। प्रयास करके इच्छाओं को कम करना चाहिए। संसार के समस्त पदार्थ विनाशी हैं। अविनाशी तो केवल आत्मा है। यह आत्मा ही है, जिसके लिए कहा गया है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी यह नहीं मरती। साधकों को इस जीवन में ही सचेत होकर निरंतर आत्म-चिंतन करना चाहिए।
            जीवन की समापन बेला आने से पहले ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें। प्रभु से प्रार्थना करें कि 'हे ईश्वर! मेरा मन आपके चरणों में लग जाए।'1जीवन में सत्कर्मों को अपनाएं। पाप कर्मों से विमुख हो जाएं। कर्म सिद्धांत अटूट है। किए गए अपराधों के दुष्परिणामों को तो हर हाल में भुगतना ही होगा। इसलिए प्रयास करना चाहिए कि गलत आचरण न हो। किसी को मत सताइए, किसी को पीड़ा मत दीजिए। चेत जाइए। अभी समय है। समय रहते ही स्वयं को सुधार लेना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। समय बर्बाद करने पर दुखी होने के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। प्राण जाने से पहले ही सुधार किया जाना अपेक्षित है। अंतकाल में अचानक कुछ भी न हो सकेगा। तैयारी अभी से होनी चाहिए। शुभ संकल्प अभी से जगाने होंगे। संतों ने संदेश दिया है कि अच्छे कार्य करते रहें। भक्ति व ध्यान का मार्ग अपनाएं। आराधना द्वारा भगवान को अपना बनाएं। आपकी मुक्ति सुनिश्चित है।
                                  || हरिः शरणम् ||

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