Thursday, April 24, 2014

निर्माण और विध्वंश (Construction and destruction)

                  विकार अपने आप में बुरे नहीं हैं। सवाल है उनसे जुड़ने का। देव से जु़ड़कर वे सद्गुण बन जाते हैं और दानव से जुड़कर दुर्गुण । यह वैसे ही होता है जैसे जल नाली में गिरने से गंदा और गंगा में मिलने से निर्मल हो जाता है।
                 भगवान कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं 'मैं इच्छाओं में काम हूं।' यही उदात्तकाम परमात्मा से जुड़कर भक्ति बन जाता है, परंतु जब यही काम वासना के कीचड़ में फंसता है तो अनर्थकारी व्यभिचार का रूप ले लेता है। जहां राम का काम लोकमंगल का कारण बनता है वहीं रावण का काम सर्वनाश का कारण।
                विष्णु से जुड़ते ही लोभ सकल ब्रह्मांड का पालक बन जाता है। मितव्ययी समाज के लिए कुछ कर गुजरता है और दुर्व्यसनी स्वयं मिट जाता है। कंजूस का गड़ा हुआ धन किस काम का? धन परमात्मा की विभूति है। इसलिए इसे लोकसंग्रह के क्षेत्र में निरंतर बहते रहना चाहिए। हम धन के मालिक न होकर उसके 'ट्रस्टी' हैं। व्यक्ति केंद्रित धन शोषण को बढ़ावा देता है। इसे असुरों के हाथ में नहीं होना चाहिए। कुबेर का खजाना देवताओं के अभ्युदय के लिए था। जब वह रावण के हाथ में चला गया तो संतों का उत्पीड़क बन गया।
               शंकर को क्रोध का देवता माना जाता है। नवसृजन के लिए ध्वंस जरूरी है। सृजन और संहार, दोनों सृष्टि के विधान के अंतर्गत हैं। असंयमित काम को अनुशासित करने के लिए शिव को तीसरा नेत्र खोलना पड़ा था। राजा बलि के दंभ को मिटाने के लिए भगवान को वामन का रूप धारण करना पड़ा था। काम और लोभ पर विजय हासिल करने वाले परशुराम के क्रोध के शमन के लिए भगवान राम को झुकना पड़ा था। काम, लोभ और क्रोध की वृत्तियां जब वासनाजन्य इच्छाओं को तृप्त करने में लग जाती हैं तब समाज के चारों ओर अनर्थ घटने लगता है। काम और लोभ क्रियाएं हैं और क्रोध इनकी तीखी प्रतिक्रिया है। यानी काम और लोभ की अतृप्त वृत्तियां क्रोध को जन्म देती हैं। नारद में कामजन्य क्रोध है तो कैकेयी में लोभजन्य क्रोध। नारद भगवान को बुरा-भला कहते हैं। चूंकि देवर्षि नारद भगवान के भक्त हैं इसलिए वह अपनी करुणा से उन्हें काम की जकड़ से मुक्त कर देते हैं। राम ने भरत को सन्निपात का सबसे बड़ा वैद्य माना। भरत ने राज्य न लेकर लोभ को जीता, मंथरा को क्षमा करके क्रोध को जीता और नंदी ग्राम में तपस्या करके काम को जीता।
                        || हरिः शरणम् ||

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