Tuesday, April 15, 2014

भक्त-एक शरणागत |

                   भक्त का अर्थ है-सेवक। सेवक का अर्थ है-स्वेच्छा से स्वामी के प्रति समर्पण। प्रेम, आनंद और प्रसन्नता के कारण जब कोई भक्त अपने स्वामी के प्रति समर्पित हो जाता है तो वह सेवक हो जाता है। उसे ही धर्मग्रंथों में सच्चा भक्त, सेवक या दास कहते हैं।
                   रामचरितमानस में सेवक के धर्म को सबसे कठिन बताया गया है। सेवक की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। वह अपने मालिक की इच्छा को सर्वोपरि मानता है। भक्त तो प्रतिपल अपने स्वामी की कृपा के लिए इंतजार करता है। वह हर पल रोम-रोम से धन्यवादी और अहोभाव से, कृतज्ञता से परिपूर्ण होता है। भक्त कभी विभक्त नहीं हो सकता। उसकी भक्ति में कमी नहीं आती। तत्वज्ञानी भक्त जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझता है। वह जानता है कि इस सृष्टि से पार जाने के लिए, माया को लांघने के लिए मायापति प्रभु की वरण-शरण में जाना ही पड़ेगा। भक्त संसार की नश्वरता और ब्रह्म की शाश्वतता को जानता है।
                गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि उसे ही जागा हुआ जानना जिसमें वीतरागता पैदा हो चुकी हो। जिसने जान लिया कि हर विषय-भोग के पीछे 'विष' छिपा है। भक्त के पास तो अपने आराध्य प्रभु के लिए प्रेम-पुष्प ही होता है। वह अपने हृदय मंदिर में उस प्रभु को बिठाकर अपने अहंकार का सदैव परित्याग करना चाहता है।
               प्रेम ही भक्त है, प्रेम ही पूजा-अर्चना है। प्रेम के सामने प्रभु को भी झुकना पड़ता है। भक्त तो हर पल प्रार्थना करता है और कहता है- हे प्रभु! आप अंतर्यामी हैं, आप हमारे हर भाव-कुभाव को जानते और समझते हैं। अपने प्रकाश स्वरूप से हमारे अंदर छिपे अज्ञान, अंधकार और असत्य को दूरकर हमें ज्ञानी, प्रकाशवान और सत्य संकल्पी बनाएं। हमें विवेक प्रदान करें। जब ऐसी प्रार्थना भक्त करता है तो प्रभु उसकी पुकार जरूर सुनते हैं। परमपिता परमेश्वर पर पूर्ण भरोसा ही भक्ति है। भगवान भी भक्तों के बीच ही रहते हैं। जहां उनके नाम का गुणगान होता है। भक्ति आती है, तो संतुष्टि भी स्वयं आ जाती है। भक्त विनम्रता, सरलता, सहजता की साक्षात प्रतिमूर्ति होता है। जो भक्त हैं वे सदैव उस सर्वव्यापक परमात्मा के परमपद का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं। भक्त ऐश्वर्य में भी ईश्वर को नहीं भूलता।
                        || हरिः शरणम् ||

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