Sunday, June 1, 2014

तन-मन-धन |

                                        इस संसार में जिस किसी भी व्यक्ति ने,मनुष्य ने जन्म लिया है ,उसके जीवन में तन,मन और धन तीनों का ही बहुत महत्त्व है | तन और कुछ सीमा तक मन भी ,इस संसार में सभी भूतों,सभी जीव-जंतुओं ,प्राणियों के पास होता है परन्तु इन दोनों के साथ साथ धन केवल मनुष्य के पास ही होना संभव है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी जीवों में मात्र तन का महत्त्व होता है,उनमे स्थित मन केवल पूर्व मानव जीवन में किये गए कर्मों का फल भोगने मात्र के लिए उदासीन अवस्था में स्थित होता है |वे जीव अपने मन के अनुसार कोई कर्म नहीं कर सकते,केवल मन से वही कर्म होते हैं जो पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के फलों को भोगने के लिए होने आवश्यक है | जबकि मनुष्य में मन सक्रिय अवस्था में होता है और वह अपने मन के अनुसार कर्म करने को स्वतन्त्र होता है |इस मन का वह उपयोग किस तरह करता है,यह उसके संस्कार और उपलब्ध वातावरण और  परिस्थितियों  पर निर्भर करता है |
                 तन को प्राप्त करना मनुष्य के हाथ में नहीं है |तन यानि यह भौतिक शरीर, पांच भौतिक तत्वों से निर्मित है और कैसा आपका तन होगा ,यह केवल उन तत्वों ,स्थान और जिस घर में आपका जन्म होनेवाला है उस घर के पूर्वजों के शरीर-सौष्ठव पर निर्भर करता है | जन्म के बाद जो भी तन में परिवर्तन होते है उसमे इन्ही तीन कारकों का ही महत्व होता है |
                  मन,आपका स्वयं का होता है और यह जैसा आप उसका सदुपयोग-दुरूपयोग करना चाहते हैं ,करने को स्वतन्त्र होते हैं | पूर्व जन्म का मन ,इस नए जीवन के प्रारम्भ में ही अपना स्थान ग्रहण करता है | इस मन के कारण आप केवल वही कर्म कर सकते हैं जो मन का यह भाग करवाना चाहता है |परन्तु मन का दूसरा भाग ,जिसका विकास इस भौतिक शरीर के बनने के दौरान गर्भावस्था में ही प्रारम्भ हो जाता है और जन्म के समय यह पूर्ण रूप ले लेता है ,के अनुसार मनुष्य कर्म करने या न करने के लिए स्वतन्त्र होता है |
                धन,उस सम्पति को कहते हैं ,जो मनुष्य अपने जीवन काल में स्वयं अपने पुरुषार्थ से अर्जित करता है | इस  धन का सदुपयोग अथवा दुरूपयोग मनुष्य अपने मन के अनुसार करता है |अब यह धन या सम्पति किस प्रकार अर्जित की जाती है,किस प्रकार उपयोग में ली जाती है या संचित की जाती है,यह सब उस व्यक्ति की मनोवृति पर निर्भर करता है | इसमे उसके तन का योगदान केवल पुरुषार्थ करने तक ही सीमित होता है | वह भी उसकी मन की इच्छानुसार ही संभव है | इस तन का उपयोग तो केवल एक मशीन की तरह ही किया जाता है,उससे अन्यथा कुछ भी नहीं |
                        आज से हम इन तीनों ही महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करेंगे |प्रस्तावना के अनुसार इन तीनों के बीच में आपस में गहरा सम्बन्ध  है |इन तीनों की ही प्रकृति और कार्यशैली को जाने बिना हम यह नहीं जान सकते कि इस संसार में हमारी आदर्श जीवन शैली क्या और कैसी होनी चाहिए?
                               || हरिः शरणम् ||  

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