पुनर्जन्म के लिए मन ही जिम्मेदार है ,इसी कारण से मन की सदैव आलोचना हुई है और आगे भविष्य में न जाने कब तक होती रहेगी । परन्तु मैं कहता हूँ कि मन वास्तव में इस आलोचना मात्र का ही अधिकारी नहीं है । मन से हम कितनी अन्य उपलब्धियां प्राप्त कर सकते हैं,इसका ज्ञान हमें नहीं है । अभी तक हम सब मन का अँधेरा पक्ष ही देखते और प्रचारित करते आये हैं । यह मन के साथ एक प्रकार से अन्याय करना है । मन के बिना व्यक्ति असहाय हो सकता है । मन की अनुपस्थिति या त्रुटिपूर्ण कार्यशैली मनुष्य को मानसिक रोगी बना सकती है । मन के अभाव में व्यक्ति का जीवन पशुतुल्य हो जाता है । अतः मन की आलोचना करने के स्थान पर इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे इस शरीर के सफल संचालन के लिए आवश्यक तत्व माना जाना चाहिए ।
मन स्बयं अपनी और से किसी भी प्रकार के कर्म करने के संकेत तन और इन्द्रियों को नहीं भेज सकता । मन आपका क्या करना चाहता है इसके लिए मन को दोष देना सर्वथा अनुचित है । मन वही कार्य करने के लिए इन्द्रियों और शरीर को कहता है जो आपकी आत्मा और बुद्धि चाहती है । आप आत्मा हो मन नहीं और बुद्धि भी नहीं । बुद्धि का नियंत्रण आत्मा के पास है और आत्मा आप स्वयं हो । जब आप शरीर नहीं हो,मन नहीं हो तो फिर आप किसी भी उचित अनुचित के लिए इनको दोष कैसे दे सकते हैं ? आत्मा जब किसी भौतिक पदार्थ से सुख प्राप्त कर लेती है तब उसकी इच्छा उस सुख को बार बार भोगने की होती है । आत्मा ,परमात्मा का ही अंश है और परमात्मा न तो कोई भौतिक पदार्थों को भोगता है और न ही भोग प्राप्त करने हेतु किये गए किसी भी कर्म में लिप्त होता है । आत्मा का भी यही लक्षण होना चाहिए । परन्तु आत्मा इस नश्वर शरीर में आकर ,इस बुद्धि और मन के संपर्क में आकर अपने स्तर से नीचे गिर जाती है और भौतिक पदार्थों से मिलने वाले सुख की बार बार कामना करती रहती है । आत्मा स्वयं कुछ नहीं कर सकती अतः वह बुद्धि के माध्यम से मन तक अपनी इच्छा प्रेषित करवाती है और मन इस भौतिक शरीर और इन्द्रियों को सक्रिय करते हुए उन भोगों से आत्मा को सुख प्रदान करवाता है ।
मन को नियंत्रण में करना तन के बस की तो बात हो ही नहीं सकती । मन को आप स्वयं ही नियंत्रण में रख सकते है क्योंकि आत्मा ही उसका सर्वाधिक उपयोग करती है । तन तो मात्र एक साधन की भूमिका में होता है और मन एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है । अतः मन को नियंत्रित करते हुए हम संसार के कठिन से कठिन कार्य भी संपन्न कर सकते हैं और परमात्मा तक को प्राप्त कर सकते हैं ।इसी लिए किसी ने सच ही कहा है-"मन के हारे हार है,मन के जीते जीत "। अगर आत्मा मन को नियंत्रित नहीं कर सकती तो यह मन को हारना हो गया और मन को हार जाने पर आप सब कुछ हार जाते हो । जब मन को आत्मा पूर्ण नियंत्रण में ले लेती है तब मन को जीत लिया जाता है और फिर आपके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं रहता । अब यह आपके हाथ में है,आपकी आत्मा के हाथ है कि वह मन को किस प्रकार से नियंत्रित करती है ?-स्वार्थ के लिए अथवा परमार्थ के लिए ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
मन स्बयं अपनी और से किसी भी प्रकार के कर्म करने के संकेत तन और इन्द्रियों को नहीं भेज सकता । मन आपका क्या करना चाहता है इसके लिए मन को दोष देना सर्वथा अनुचित है । मन वही कार्य करने के लिए इन्द्रियों और शरीर को कहता है जो आपकी आत्मा और बुद्धि चाहती है । आप आत्मा हो मन नहीं और बुद्धि भी नहीं । बुद्धि का नियंत्रण आत्मा के पास है और आत्मा आप स्वयं हो । जब आप शरीर नहीं हो,मन नहीं हो तो फिर आप किसी भी उचित अनुचित के लिए इनको दोष कैसे दे सकते हैं ? आत्मा जब किसी भौतिक पदार्थ से सुख प्राप्त कर लेती है तब उसकी इच्छा उस सुख को बार बार भोगने की होती है । आत्मा ,परमात्मा का ही अंश है और परमात्मा न तो कोई भौतिक पदार्थों को भोगता है और न ही भोग प्राप्त करने हेतु किये गए किसी भी कर्म में लिप्त होता है । आत्मा का भी यही लक्षण होना चाहिए । परन्तु आत्मा इस नश्वर शरीर में आकर ,इस बुद्धि और मन के संपर्क में आकर अपने स्तर से नीचे गिर जाती है और भौतिक पदार्थों से मिलने वाले सुख की बार बार कामना करती रहती है । आत्मा स्वयं कुछ नहीं कर सकती अतः वह बुद्धि के माध्यम से मन तक अपनी इच्छा प्रेषित करवाती है और मन इस भौतिक शरीर और इन्द्रियों को सक्रिय करते हुए उन भोगों से आत्मा को सुख प्रदान करवाता है ।
मन को नियंत्रण में करना तन के बस की तो बात हो ही नहीं सकती । मन को आप स्वयं ही नियंत्रण में रख सकते है क्योंकि आत्मा ही उसका सर्वाधिक उपयोग करती है । तन तो मात्र एक साधन की भूमिका में होता है और मन एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है । अतः मन को नियंत्रित करते हुए हम संसार के कठिन से कठिन कार्य भी संपन्न कर सकते हैं और परमात्मा तक को प्राप्त कर सकते हैं ।इसी लिए किसी ने सच ही कहा है-"मन के हारे हार है,मन के जीते जीत "। अगर आत्मा मन को नियंत्रित नहीं कर सकती तो यह मन को हारना हो गया और मन को हार जाने पर आप सब कुछ हार जाते हो । जब मन को आत्मा पूर्ण नियंत्रण में ले लेती है तब मन को जीत लिया जाता है और फिर आपके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं रहता । अब यह आपके हाथ में है,आपकी आत्मा के हाथ है कि वह मन को किस प्रकार से नियंत्रित करती है ?-स्वार्थ के लिए अथवा परमार्थ के लिए ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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