Friday, June 6, 2014

तन |-५

                             तन की तीसरी विशेषता है कि यह एक माध्यम,एक साधन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । माध्यम का अर्थ है कि किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जिसकी उपस्थिति आवश्यक हो । बिना तन के,बगैर इस स्थूल शरीर के कोई भी व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता ।  मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ,अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है । इसके लिए वह सभी उचित , अनुचित साधन का उपयोग कर सकता है । सभी साधनों के उपयोग के लिए यह तन ही एक माध्यम होता है ।तन  ,एक मशीन है और इसे अच्छे और बुरे दोनों ही तरह के कार्यों के लिए उपयोग में लिया जा सकता है । इसके लिए जिम्मेदार यह भौतिक शरीर यानि तन नहीं होता बल्कि  इन्द्रियों के पांच सूक्ष्म तत्व, मन, बुद्धि और अहंकार ,कुल आठ तत्व जो सब मिलकर  सूक्ष्म शरीर कहलाते है ,वह सूक्ष्म शरीर ही इसके लिए उत्तरदाई होता है । परन्तु केवल मनुष्य ही इस संसार में एक मात्र प्राणी है जिसकी बुद्धि अतिविकसित होती है ,अगर वह अपनी बुद्धि का सही तरीके से इस्तेमाल करे तो न तो उसका कोई उद्देश्य अनुचित होगा और न ही उसे प्राप्त करने के लिए उपयोग में लिया जाने वाला साधन । यही बुद्धि मनुष्य को पशु से अलग करती है।
                  मनुष्य के तन से हम परमात्मा तक को प्राप्त कर सकते हैं ।इसके लिए इस तन को प्रथमतः तो प्रकृति के बनाये हुए नियमों को स्वीकार करते हुए उन्ही के अनुसार चलना होगा । तभी इस तन रुपी मशीन को एक सुयोग्य साधन की तरह उपयोग में लिया जा सकता है । यह मानव तन हमें इसलिए परमात्मा ने दिया है जिससे हम एक दूसरे के काम आयें,एक दूसरे की सहायता करें । ऐसा करना ही देवतुल्य व्यवहार कहलाता है । मुझे इसे और स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त याद आ रहा है । किसी ने परमात्मा से पूछा कि देवताओं और राक्षसों में ऐसा कौन सा अंतर है कि आप देवताओं की सहायता के लिए तो सदैव तत्पर रहते हैं और राक्षसों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं । परमात्मा ने कहा कि देवता सदैव एक दूसरे की सहायता को तत्पर रहते हैं जबकि राक्षस केवल अपने स्वार्थपूर्ति में ही व्यस्त रहते हैं ।
                       परमात्मा ने इसे सिद्ध करने के लिए  प्रत्येक देवता और हर एक राक्षस के हाथ को एक लम्बी लकड़ी से इस प्रकार बांध दिया कि उस हाथ कोहनी से मुड़ नहीं सके । सभी राक्षसों को एक कमरे में और सभी देवताओं को दूसरे कमरे में बैठा दिया । जब भोजन का समय हुआ तो प्रत्येक राक्षस और देवता के समक्ष भोजन परोस कर थाली रख दी गई । थोड़ी देर बाद जब राक्षसों के कमरे में जाकर देखा गया तो पाया कि सभी राक्षस अपना अपना पेट भरने के लिए खाने का प्रयास कर रहे हैं परन्तु कोहनी से हाथ न मुड़ पाने के कारण खाना मुंह में न जाकर बाहर ही बिखर जाता है । इस प्रकार सभी राक्षस अंत में भूखे ही रह गए । दूसरे कक्ष में देवता थे । उस कक्ष का अवलोकन करने पर पाया कि हाथ कोहनी से न मुड़ पाने के कारण वे स्वयं अपना पेट न भरता देख एक दूसरे को खाना खिलाने में लगे हुए है । इस प्रकार सभी देवताओं ने अपने हाथ बंधे होने के बावजूद आपसी सहयोग से एक दूसरे का पेट भर दिया ।
                           इस दृष्टान्त से हम समझ ही गए हैं कि इस तन रुपी साधन का सदुपयोग करना ही इस जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ।सदुपयोग से अर्थ एक दूसरे के काम आना,अपने जैसा ही दूसरे को समझना और सहायता को तत्पर रहना है ।  इस तन की यह सबसे बड़ी और अच्छी विशेषता है कि यह एक अच्छा साधन है ।
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् || 

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