Sunday, June 29, 2014

धन |-८

                                 धन के विसर्जन के कितने तरीके हो सकते है ,आइये वही जानने का प्रयास करते है । एक बहुत ही प्रसिद्द दोहा है ,जो इस बारे में हमारा मार्ग दर्शन कर सकता है ।
                                  या धन की गति तीन है,दान भोग और नाश ।
                                  दान कर दो या भोग लो, या फिर होगा  नाश ॥
                 धन चंचल है,इसलिए यह गतिमान भी है । इस धन की तीन प्रकार की गति होती है-दान,भोग और नाश । दान का अर्थ है आप इस धन को किसी जरूरतमंद की सेवा के लिए समर्पित कर सकते हैं । इस भौतिक संसार में चाहे हम धन की कितनी ही निंदा करलें परन्तु हम सब साथ ही यह भी जानते हैं कि इस संसार में बिना धन के जीना कितना मुश्किल है । दान,धन का एक त्याग है । इस त्याग के पीछे परमार्थ की भावना होती है । स्वार्थ से दान का किसी भी प्रकार का कोई रिश्ता नहीं होता है । जिस धन के त्याग के पीछे स्वार्थ छिपा होता है फिर वह धन का त्याग दान की श्रेणी में नहीं आता है । स्वार्थ प्रायः अपना नाम कमाने और प्रसिद्धि तथा समाज में प्रतिष्ठा पाने का होता है । अतः जो त्याग या कथित दान अगर व्यक्ति प्रसिद्धि और नाम पाने के उद्देश्य से करता है वह दान निम्न या राजस श्रेणी का कहा जाता है ।
                               गीता में भगवान् श्री कृष्ण इस प्रकार के दान के बारे में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि-
                                                        यत्तु प्रत्युप्कारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
                                                       दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ गीता १७/२१ ॥
                              अर्थात,जो दान क्लेश पूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टिगत रखते हुए दिया जाता है,वह दान राजस प्रकृति का कहा जाता है । क्लेश पूर्वक दान वह दान है जो आजकल हम लोग चंदा करने वालों को मजबूरीवश देते हैं । फ़ल की दृष्टि से दान करने का अर्थ है कि दान मान,बड़ाई,प्रतिष्ठा और स्वर्गादिकी प्राप्ति के लिए या फिर रोग अथवा कष्ट निवारण हेतु दिया जाता है । इस प्रकार से दिया हुआ
दान व्यक्ति को बांधता ही है,मुक्त नहीं करता ।
                               अब प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार का दान बांधता कैसे है ,जबकि धन का त्याग तो इस प्रकार से किये हुए  दान में भी होता है । इस विधि से दिए गए दान से आपका निजी स्वार्थ जुड़ा होता है और स्वार्थ सदैव ही मोह पैदा करता है । मोह ही बंधन पैदा करता है । अतः इस प्रकार से किये गए दान में धन का त्याग होते हुए भी धन के प्रति आसक्ति बनी रहती है और आसक्ति बंधन पैदा करती है । इस दान मैं व्यक्ति धन का त्याग करके भी धन से मुक्त नहीं हो पाता ।
                               फिर कौन सा दान अच्छी श्रेणी का माना जाता है ? वह दान जो बिना किसी कामना के पात्र और योग्य व्यक्ति को उसकी आवश्यकता को देखते हुए दिया जाता है वह दान सात्विक दान कहलाता है । ऐसे दान में न तो उपकार की भावना मन में होनी चाहिए और न ही बदले में कुछ प्राप्त हो जाने की कामना ही होनी चाहिए । आत्म प्रसंशा की कामना तो करना अनुचित है ही ।दान ,पात्र व्यक्ति की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर और उसी अनुरूप आवश्यकता को पूरा करने वाला होना चाहिए ।  इस दान के बारे में कहा जाता है कि ऐसा दान अगर आप दायें हाथ से कर रहे हो तो इसकी खबर बाएं हाथ को भी नहीं होनी चाहिए । इस प्रकार के दान में धन का त्याग पूर्णतया हो जाता है और दान किये हुए धन में आसक्ति पूर्णतया समाप्त हो जाती है । ऐसा दान ही व्यक्ति को मुक्त कर सकता है ।
क्रमशः
                                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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